________________
ऐतिहासिक तथ्य ]
[ ३५ (राज्यकाल ईस्वी सन् ७०० से ७४०) और काश्मीर के महाराजा ललितादित्य (राज्यकाल ईस्वी सन् लगभग ७२४ से ७६०) अपने समय के दो महान् शक्तिशाली राजा थे। यशोवर्मन ने दक्षिणी समुद्र से लेकर उत्तर में काश्मीर राज्य की दक्षिणी सीमाओं तक अपने राज्य का विस्तार किया। उधर काश्मीर का महाराजा ललितादित्य भी बड़ा शौर्यशाली और साहसी राजा था। ईस्वी सन् ७२१ के . आसपास जब अरब लोग विशाल भारत देश को इस्लामी राज्य बनाने के उद्देश्य से सर्वप्रथम सिन्ध की ओर और तदनन्तर काश्मीर की ओर बढ़ने लगे, उस समय कन्नौज के राजा यशोवर्मन ने सिन्ध में बढ़ती हुई अरब सेनाओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया। तदनन्तर काश्मीर की ओर बढ़ती हुई अरबों की विशाल सेना को काश्मीरराज ललितादित्य ने आगे बढ़ने से रोका और यशोवर्मन की सहायता से अरबों को पीछे की ओर धकेल दिया। महाराजा यशोवर्मन और ललितादित्य, इन दोनों ने ईस्वी सन् ७२१ के आसपास ही सम्भवतः अरबों के आक्रमण के कुछ समय पूर्व चीन के सम्राट को अपने दूत भेजकर निवेदन किया कि अरबों के दबाव को रोकने के लिये सम्राट् उनकी सैनिक सहायता करे । चीन के सम्राट की ओर से किसी प्रकार की सहायता उपलब्ध न होने पर भी इन दोनों शक्तिशाली राजाओं ने भारत की ओर बढ़ती हुई अरबों की सेनाओं को युद्ध में परास्त कर पीछे की ओर लौटने के लिये बाध्य कर दिया। काश्मीर के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ राजकवि कल्हण ने अपने ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रन्थ राजतरंगिणी में लिखा है कि इन दोनों राजाओं के बीच परस्पर मनोमालिन्य बढ़ते-बढ़ते संघर्ष का रूप धारण कर गया। संघर्ष को उग्र होते देख दोनों राजाओं ने सन्धि करने का निश्चय किया। तदनुसार सन्धि-पत्र का आलेखन भी कर लिया गया। परन्तु "यशोवर्मन और ललितादित्य के बीच शान्ति सन्धि"-सन्धिपत्र के इस शीर्षक को देखकर काश्मीरराज ललितादित्य के सांधिविग्रहिक मन्त्री ने अपने स्वामी से पूर्व यशोवर्मन के नाम के लिखे जाने पर आपत्ति की। दोनों पक्षों में से कोई भी पक्ष अपने स्वामी का नाम दूसरे स्थान पर रखने के लिये सहमत नहीं हुआ। परिणामस्वरूप न केवल सन्धि ही होते होते रुक गई अपितु दो राज्यों के मन्त्रियों की अहमकता
और दो राजाओं के अदूरदर्शितापूर्ण थोथे अहं के परिणामस्वरूप उन दोनों राजाओं में भयंकर युद्ध हुआ। जो शक्ति अरब आतताइयों को सदा के लिये परास्त करने में लगनी चाहिये थी वह शक्ति एक दूसरे को समाप्त करने में ही नष्ट-भ्रष्ट हो गई।
इस इतिहास ग्रन्थमाला के तृतीय पुष्प में इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के सन्दर्भ में लिखा गया है :
"इस प्रकार भारत को एक अजेय शक्तिशाली राष्ट्र बनाने का स्वप्न असमय में ही टूट गया। यह भारत के लिये बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी कि १. जनधर्म का मौलिक इतिहास भाग ३ पृष्ठ ६२३/६२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org