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________________ ३४ ]. . [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अतीत के इतिहास को प्रत्यक्ष की भांति इस इतिहास दर्पण में देखकर पूर्ण रूप से सजग और सक्रिय हो जाय । जिन भूतकाल की भूलों के कारण संघ में बिखराव की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, संघ विघटित होते होते एक सीमित क्षेत्र में संकुचित हो गया, उन सब भूलों को मूलतः विनष्ट करने के लिये वह सच्चे मन से कटिबद्ध हो जाय । अतीत में धर्म संघ के अभ्युदय और उत्कर्ष हेतु पूर्वजों द्वारा जो जो क्रान्तिकारी कदम उठाये गये उनसे प्रत्येक जैन भलीभांति अवगत हो, प्रगति की ओर बढ़े, उन पूर्वजों के पद-चिन्हों पर सामूहिक रूप से प्रयाण करने का दृढ़ संकल्प कर ले। अतीत में जिनेश्वर की शास्त्रों में प्रतिपादित आज्ञा के विपरीत जिन जिन अशास्त्रीय मान्यताओं, विधि-विधानों, धार्मिक आयोजनों एवं अनुष्ठानों को चतुविध संघ के लिये करणीय रूप में, धार्मिक कृत्यों के रूप में अंगीकार कर उन्हें अपनी आवश्यक दैनिक चर्या में क्रियान्वित किया गया और जिनके कारण श्रमण भगवान महावीर का प्रबल शक्तिशाली सुदृढ़ संघ विभिन्न इकाइयों में विभक्त होकर विघटित एवं छोटे-छोटे टुकड़ों में छिन्न-भिन्न होकर बिखर गया, अतीव अशक्त तथा क्षीण बन गया, उन सब अशास्त्रीय मान्यताओं को एक ही झटके में उखाड़कर फेंकने के लिये प्रत्येक जैन, चतुर्विध संघ का प्रत्येक सदस्य दृढ़ संकल्प के साथ कटिबद्ध हो जाय । इन सब अतीत की भूलों एवं गच्छों में पराकाष्ठा तक पहुँचे पारस्परिक कलहों, विवादों, विद्वेषों आदि पर यथातथ्य रूपेण प्रकाश डालने के पीछे भी हमारी यही एकमात्र पुनीत भावना है कि अतीत में हुई उन भूलों का भविष्य में कदापि किसी भी रूप में पुनरावर्तन न हो। भूतकाल की उन भूलों के परिणामस्वरूप जो विघटनकारी बुराइयां हमारे धर्मसंघ में प्रविष्ट हो गहराई तक घर कर चुकी हैं, उन बुराइयों से समाज को, धर्मसंघ को सदा के लिये मुक्ति दिलाने हेतु सभी प्रकार के साम्प्रदायिक व्यामोहों को जलांजलि दे सभी भांति के कदाग्रहपूर्ण पूर्वाभिनिवेशों से पूर्णतः विमुक्त हो, उन सब बुराइयों को दृढ़ संकल्प के साथ दूर करना होगा। भूतकाल की भूलों से अवगत हो जाने के अनन्तर भी यदि उस प्रकार की भूलें भविष्य में न हों, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प न किया जाय और जिन भूलों अथवा बुराइयों के कारण धर्मसंघ, समाज अथवा किसी देश को जो हानियां उठानी पड़ी हैं, उनसे बचने के लिये यदि उन बुराइयों को दूर न किया जाय तो यह इतिहास-दर्पण का दोष नहीं, उसमें अपने मुखड़े को देखने वाले संघनायकों एवं राष्ट्रनायकों का ही दोष माना जायगा । __इसी ग्रन्थमाला के तृतीय पुष्प में भारत के दो शक्तिशाली राजाओं के थोथे अहं और उनके अहमक मन्त्रियों की अदूरदर्शितापूर्ण भूल के कारण भारत जैसे महान् राष्ट्र को जो अपूरणीय क्षति उठानी पड़ी, उस पर प्रकाश डाला गया है । ईस्वी सन् ६३७. के आसपास कन्नौज के महाराजा हर्षवर्द्धन की मृत्यु के ५३ वर्ष पश्चात् कन्नौज के राजसिंहासन पर आसीन होने वाले महाराजा यशोवर्मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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