________________
ऐतिहासिक तथ्य ]
जिस प्रकार यापनीय संघ, भट्टारक परम्परा, चैत्यवासी परम्परा आदि के नाम से पूर्व काल में विख्यात संघों ने जिन शासन के अभ्युदय, उत्थान के लिये अनेक प्रकार के ऐसे कार्य किये जो शास्त्रों में पंच महाव्रतधारी श्रमण-श्रमणी वर्ग के लिये करणीय नहीं बताये गये हैं, ठीक इसी प्रकार विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशक पूर्व प्रारम्भ हुई आंशिक अपूर्ण अथवा असमग्र क्रियोद्धार की परम्परा के परिणामस्वरूप समय-समय पर जैनधर्म संघ में जितने भी गच्छ अस्तित्व में आये अथवा उत्पन्न हुए, उन सब में भी जिनशासन के उत्कर्ष के लक्ष्य एवं चतुर्विध संघ के प्राचार-विचार में यथाशक्य शास्त्रानुकूल सुधार लाने के लिये ही प्रयास किये गये । उन विभिन्न गच्छों के समय की विभिन्न परिस्थितियों के सन्दर्भ में यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो यही तथ्य प्रकाश में आवेगा कि प्रायः उन सभी गच्छों ने जिनशासन के गौरव की अभिवृद्धि हेतु कतिपय उल्लेखनीय कार्य किये । यदि उन गच्छों में अपने-अपने गच्छ के प्रति मिथ्या अहंभाव, साम्प्रदायिक व्यामोह, एक दूसरे को अपने से हीन, नीचा एवं मिथ्यात्वी बताने की और केवल अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रवृत्ति नहीं होती तो जैनधर्म संघ को गणना साम्प्रतकालोन संघों में एक शक्तिशाली धर्मसंघ के रूप में की जाती। किन्तु दुर्भाग्यवशात् स्थिति इससे पूर्णतः विपरीत रही, जिसका दुष्परिणाम आज हमें स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रहा है कि जो जैनसंघ उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में सागर के तट पर्यन्त के प्रदेशों में और पूर्व में स्वर्ण भूमि से लेकर पश्चिम में अरब सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में अपने पूर्ण वर्चस्व के साथ फैला हुआ था, वह सिमटते-सिकुड़ते सीमित क्षेत्रों में एक अत्यल्प संख्यक धर्मसंघ के रूप में अवशिष्ट रह गया है । इस तथ्य से तो कोई भी निष्पक्ष मनीषी असहमत नहीं होगा कि छोटी-छोटी अनेक इकाइयों में विभक्त हो जाने और उन छोटी-छोटी इकाइयों में भी पारस्परिक विद्वेष, कलह, एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवत्ति के घर कर जाने के कारण ही जैनधर्म की बड़ी भयंकर क्षति हुई । किसी समय भारत में बहु संख्यक के रूप में रहे जैन आज के युग में अत्यल्प संख्या में अवशिष्ट रह गये।
इतिहास वस्तुतः किसी भी देश, धर्म, राष्ट्र, समाज, जाति एवं व्यक्ति के लिये उनके अपने अपने अतीत को प्रत्यक्ष की भांति दिखाने वाला एक अद्भुत दर्पण है । इस इतिहास-दर्पण में देश, जाति, धर्म और समाज के कर्णधार अपने-अपने अतीत को भली-भांति देख सकते हैं । इतिहास-दर्पण में अपने अतीत के पर्यवेक्षण से प्रत्येक व्यक्ति को सहज ही सुस्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष की भांति बोध हो जाता है कि उसने कहां-कहां किस-किस प्रकार की त्रुटियाँ की हैं, उन त्रुटियों के कारण अति दुर्भाग्यपूर्ण भयंकर क्षति उठाई है और कहां-कहां अपनी त्रुटियों को सुधार कर उसने प्रगति की ओर चरण बढ़ाये हैं।
प्रस्तुत किये जा रहे इस चतुर्थ भाग में जैनधर्म के विभिन्न प्रमुख गच्छों का एकमात्र इसी दृष्टि से इतिवृत्त दिया जा रहा है कि प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org