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________________ ३२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अपूर्ण एवं अधूरे क्रियोद्धारों के क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप जैन धर्म संघ में जो अगणित मान्यताभेद, गच्छभेद उत्पन्न हुए और उनके पारस्परिक क्लेष खण्डनमण्डन एक दूसरे के प्रति कटु प्रहार, अशोभनीय व्यवहार आदि के कारण जैनसंघ की प्रतिष्ठा, शक्ति एवं वर्चस्व में उत्तरोत्तर न्यूनता का क्रम चला, उन सब दुखद प्रसंगों पर भी यथाशक्य संक्षेप में सारभूत प्रकाश डाला जायगा। जैनसंघ के दुखद ह्रास के मूल कारण इन ऐतिहासिक कटु तथ्यों पर प्रकाश डालने के पीछे हमारी लवलेशमात्र भी यह भावना नहीं है कि किसी भी गच्छ विशेष को लोकदृष्टि में नीचा दिखाया जाय। हमारी एक मात्र पुनीत भावना यही है कि जिनशासन प्रेमी . प्रत्येक जैन को जिनशासन के ह्रास के मूल कारणों से सुस्पष्ट एवं सुचारु रूपेण अवगत करा दिया जाय । इस प्रसंग में हम स्पष्ट रूप से यह अभिव्यक्त कर देना चाहते हैं कि अपने-अपने समय में प्रत्येक गच्छ ने देशकाल और तत्कालीन विभिन्न परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए जैनसंघ को एक जीवित संघ के रूप में शक्तिशाली बनाने के लिए अथक प्रयास किये हैं। तृतीय भाग के आलेखन के समय स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित कर दिया गया है कि जैन संघ के वर्चस्व को, प्रचार-प्रसार को, व्यापक रूप प्रदान करने के सदुद्देश्य से मुनिचन्द्र नामक एक प्राचार्य ने एक राज्य की सेनाओं की बागडोर अपने हाथ में लेकर सैन्य संचालन तक किया, यापनीय परम्परा के महान् आचार्यों ने जैन संघ की प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि करने के लक्ष्य से गंग वंश जैसी एक शक्तिशाली राज्यसत्ता तक को जन्म दिया। जैन धर्म की पोषक उस राज्य सत्ता को सशक्त एवं चिरस्थायी बनाने के लिये उन्होंने शास्त्र में साधु के लिये वर्जित उपदेशों एवं साम, दाम, दण्ड, भेदपूर्ण राजनैतिक निर्देशों तक का सहारा लिया। प्राचार्य माघनन्दी के उपदेशानुसार कोल्हापुर नृपति गण्डरादित्य एवं उनके जिनशासन प्रेमी सामन्त निम्बदेव ने हृदयद्रावक कूटनीति का सहारा लेकर ७७७ राजपुत्रों, सामन्तपुत्रों, श्रेष्ठिपुत्रों, एवं गण्यमान्य श्रीमन्त गृहस्थों के किशोरों को साधु धर्म में दीक्षित करवाकर भट्टारक परम्परा की स्थापना में माधनन्दी प्राचार्य को इतिहास में अमर उल्लेख योग्य सहायता प्रदान की। यापनीय परम्परा के प्राचार्यों ने जन-जन को जिन शासन की ओर आकर्षित करने के सदुद्देश्य से सर्वधर्म-समन्वयवादी नीति का एवं प्रशास्त्रीय विधि विधानों, अनुष्ठानों, धार्मिक आयोजनों का सहारा लेकर अनेक प्रकार के कल्पों, मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रों का आविष्कार करने के साथ-साथ सुविशाल चैत्यों, ज्वालामालिनी, पद्मावती आदि देवियों के मन्दिरों, विशाल विद्यापीठों, मठों तथा श्रमण-श्रमणियों की सुविधा हेतु विशाल ग्रावासों का निर्माण करवाया। यापनीय, चैत्यवासी, भट्टारक आदि परम्पराओं द्वारा किये गये उपरि वरिणत प्रकार के विविध कार्यकलाप यद्यपि श्रवण-श्रमणी वर्ग के लिये शास्त्रों में वजित हैं तथापि उनके समय की देश काल की परिस्थितियों को देखते हुए उनकी इन अशास्त्रीय गति-विधियों ने जैन संघ को जीवित रखने में बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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