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________________ ऐतिहासिक तथ्य ] न खिद्यसि प्रचलसि प्रविकम्पसे त्वम्, तत्सत्यमेव दृशदा ननु निमितोऽसि ।। अर्थात्-कंकणाभरणों से अलंकृत हरिणी के समान नेत्रों वाली अनुपम रूप लावण्य और नवयौवनसम्पन्ना सुन्दरी के अति सुकोमल सुबाहुओं के पाश में आबद्ध होने के उपरान्त भी हे स्तम्भ ! न तो तुझे पसीना ही आया है, न प्रणयभरे बाहुपाश का उत्तर देने के लिये तूकिन्चित्मात्र भी चलायमान हुआ है और न तेरे अन्दर किसी प्रकार का कामावेशजन्य कम्पन ही दृष्टिगोचर हो रहा है । यह वस्तुतः बड़े आश्चर्य की बात है, तू पत्थरहृदय है । आखीरकार वास्तव में तू पत्थर से ही तो बना हुआ है।"" प्रभावक चरित्र में उपलब्ध इस विवरण पर विचार करने के अनन्तर तो असन्दिग्ध रूप से यह निश्चित हो जाता है कि विक्रम संवत् १०८० से ११३० तक चैत्यवासियों का भारत के उत्तर पश्चिमी भू-भाग में जैनधर्म संघ पर एक प्रकार से एकाधिपत्य था और विशुद्ध श्रमण परम्परा जैनधर्म संघ में स्वल्प जन सम्मत एवं गौरण बनी हुई थी। इन सब तथ्यों पर भी "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक इस ग्रन्थमाला के प्रस्तुत किये जा रहे इस चतुर्थ भाग में विशद् रूप से प्रकाश डाला जायगा। उपरिवरिणत इसी अवधि में रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायियों एवं शैवों द्वारा जैन धर्मावलम्बियों और उनके धार्मिक स्थानों पर कर्णाटक प्रदेश में भीषण प्रहार व अत्याचार किये जा रहे थे। उस संकट की महा विनाशकारी घड़ी में बादामी के चालुक्यराज बुक्कराय ने सच्चे राजधर्म का पालन करते हुए जैन धर्मावलम्बियों पर किये जा रहे प्रहारों से जैन संघ की रक्षा कर जैनों के साथ वैष्णवों एवं शैवों का सम्मानास्पद समझौता करवाया । चालुक्यराज की यह धर्मनिरपेक्ष न्यायप्रियता, जो संसार के इतिहास में विरल ही उपलब्ध होती है, इतिहास के पन्नों पर सदा सुवर्णाक्षरों में लिखी जाती रहेगी। इस तथ्य पर भी आलेख्यमान ग्रन्थ में यथास्थान यथाशक्य समुचित प्रकाश डाला जायगा। एक अन्य दृष्टि से भी विक्रम सम्वत् १०८० से विक्रम सम्वत् १५३० तक का जैन इतिहास बड़ा ही महत्त्वपूर्ण इतिहास है क्योंकि इस अवधि में क्रियोद्धार की परम्परा का बारम्बार पुनरावर्तन हुआ । इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के अतिरिक्त उपरिवरिणत अवधि में आगमानुसार सांगोपांग समग्र कियोद्धार के अभाव अथवा १. प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १५२ श्लोक १६ से २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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