SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ की विकृतियां उत्पन्न करने वाली द्रव्य परम्पराओं का भी पूर्ण वर्चस्व रहा, जिनका कि श्रमण भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा को क्षीण, गौण और अन्तप्रवाहिनी बनाने में बहुत बड़ा हाथ रहा । इतिहास साक्षी है कि गुजरात के चालुक्यवंशी राजा भीमदेव के राज्यकाल में द्रव्य परम्पराओं की जननी चैत्यवासी परम्परा का प्रबल वर्चस्व था। प्रभावक चरित्र के उल्लेखानुसार चालुक्यवंशी गुर्जरेश्वर भीमदेव के समकालीन चैत्यवासी आचार्य गोविन्द सूरि का जैन समाज पर एकाधिकार था। श्री गोविन्दसूरि के चैत्यालय में नर्तकियों के नाच आयोजित किये जाते थे। चैत्यालयों में आयोजित किये जाने वाले नर्तकियों के विविध वाद्य वृन्दोपेत नाच को देखने के लिए न केवल राजमान्य उच्चाधिकारीगण, श्रेष्ठिवर्ग और प्रमुख प्रजाजन ही अपितु अपने आपको सुविहित परम्परा का अनुयायी बताने वाले श्रमण भी भाग लेते रहते थे। जैसा कि प्रभावक चरित्र के अन्तर्गत "श्री सूराचार्य चरितम्" में स्पष्ट उल्लेख है : "गोविन्द सूरि के चैत्य में किसी पर्व के अवसर पर आयोजित उस समय की एक विख्यात नर्तकी के नत्य को देखने के लिये महाराज भीमदेव के राज्याधिकारियों के साथ-साथ सूराचार्य भी गये। नर्तकी ने जिनचैत्य में आयोजित उस नृत्य में अपनी उच्च कोटि की नृत्यकला का प्रदर्शन किया। उस नृत्य को देखकर सभी दर्शक चित्रलिखितवत् स्तब्ध रह गये। अपनी विशिष्ट कला का प्रदर्शन करने के अनन्तर सुरबालोपमा सुन्दर नर्तकी अपनी थकान मिटाने और पवन के झोंकों से अपने मुखमण्डल एवं देहयष्टि के श्रमकणों को सुखाने के लिये नृत्यकक्ष के द्वार के पास के एक संगमरमर पत्थर के स्तम्भ का सहारा लेकर खड़ी हो गई। चमचमाते उस प्रस्तर स्तम्भ को अपने बाहुयुगल से आलिंगन कर खड़ी स्वेदखिन्ना नर्तकी की वह मुद्रा दर्शकों को अत्यधिक मनोहर प्रतीत हुई। प्रमुख दर्शकों ने जिनचैत्य के स्वामी चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य श्री गोविन्द सूरि से निवेदन किया कि इस नयनाभिराम मनमोहक मुद्रा का किसी कवि द्वारा वर्णन करवाया जाय। चैत्यवासी प्राचार्य श्री गोविन्द सूरि ने उस नृत्य समारोह में उपस्थित विद्वत्मण्डली में उपस्थित प्रत्येक विद्वान् की ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई । अन्ततोगत्वा उनकी दृष्टि सूराचार्य के प्रशान्त सौम्य मुख मण्डल पर जा अटकी । उन्होंने सूराचार्य को आदेश दिया कि वे उस मनोहारिणी मुद्रा का रसभरी काव्यमयी भाषा में चित्रण करें। आशुकवि उद्भट विद्वान् सूराचार्य ने तत्क्षण निम्नलिखित श्लोक द्वारा उस आश्चर्य प्रदायिनी आह्लाद कारिणी मुद्रा का हृदयहारिणी शैली में वर्णन किया : यत् कंकणाभरणकोमलबाहुवल्लि, संगात् कुरंगकशोर्नवयौवनायाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy