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ऐतिहासिक तथ्य ]
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गया। इस पर इतिहासप्रेमी विज्ञों का यह अभिमत रहा कि एक हजार पृष्ठों से अधिक एक पुस्तक का कलेवर बढाना सभी दृष्टियों से असुविधाजनक रहेगा। विज्ञों के इस परामर्शानुसार वीर निर्वाण सम्वत् २००० हजार तक के इतिहास को तृतीय भाग में सम्मिलित कर लेने के हमारे पूर्व संकल्प को हमें बदलना पड़ा और वीर निर्वाण सम्वत् १४७५ तक की ऐतिहासिक घटनाओं के आलेखन के साथ ही हमें तृतीय भाग की परिसमाप्ति कर देने के लिये बाध्य होना पड़ा।
__अब इस इतिहासग्रन्थमाला के चतुर्थ भाग में हम वीर निर्वाण सम्वत् १४७६ से २००० वर्ष तक का ५२५ वर्ष का जैन धर्म का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
इस अवधि में भी जैन धर्मावलम्बियों पर अनेक प्रकार के घोर संकट आये।
दक्षिण में मुख्यतः कर्णाटक में रामानुजाचार्य तथा आन्ध्र प्रदेश व कर्णाटक में लिंगायत सम्प्रदाय के अभ्युदय, उत्कर्ष और आक्रामक क्रान्तिकारी प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप जैन धर्म को अभूतपूर्व क्षति उठानी पड़ी। आन्ध्र प्रदेश में तो लिंगायतों का जैन धर्म और जैन धर्मावलम्बियों के विरुद्ध यह प्रबल अभियान वस्तुतः अप्पर और ज्ञान सम्बन्धर द्वारा तमिलनाडु में किये गये जैनों के सामूहिक संहार से भी अत्यधिक भीषण था।
तमिलनाडु में तो तिरु अप्पर और तिरु ज्ञान सम्बन्धर द्वारा प्रचालित संहारक प्रचार अभियान के उपरान्त भी शताब्दियों पूर्व जैनों की बहुसंख्यक आबादी वाले तमिलनाडु प्रदेश में कतिपय सहस्र तमिलभाषा भाषी लोग जैन धर्म के अनुयायी के रूप में अवशिष्ट रह गये थे। किन्तु आन्ध्र प्रदेश में जहां जैनों की संख्या अन्य सभी धर्मावलम्बियों से अत्यधिक मानी जाती थी, वहां लिंगायतों के द्वारा प्रारम्भ किये गये सामूहिक संहारकारी अभियान में तो समूचे आन्ध्रप्रदेश में वहां के एक भी मूल निवासी को जैन नहीं रहने दिया गया।
- इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर निर्विवाद रूप से सभी को यह स्वीकार करना होगा कि अप्पर ज्ञान सम्बन्धर रामानुजाचार्य और लिंगायत सम्प्रदाय के प्रचार-प्रसार और उसके उत्कर्ष के परिणाम स्वरूप दक्षिण में जैनों की संख्या करोड़ों से घटकर कतिपय सहस्रों की संख्या में ही अवशिष्ट रह गई। इस प्रकार उपरि वरिणत ५२५ वर्ष की अवधि में जैन संघ को, अन्य सम्प्रदायों द्वारा प्रारम्भ किये गये आक्रामक अभियानों के साथ-साथ पारस्परिक कलह और आन्तरिक वैर-विरोध और प्रायः प्रत्येक गच्छ के अनुयायियों द्वारा अपने से भिन्न सभी गच्छों को एवं उनके प्राचार्यों को न केवल अपने से हीन हो अपितु जमालिवत् निह नव बताने की प्रवृत्ति के कारण भी अत्यधिक क्षति उठानी पड़ी। इस अवधि में जैनधर्म के स्वरूप और चतुर्विध संघ के प्रचार-विचार में अनेक प्रकार
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