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________________ २८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ तीर्थयात्रा के लिये निकाले गये सुविशाल संघ पर जो धन व्यय हुआ वह इस राशि में सम्मिलित नहीं है। इतना सब कुछ होते हुए भी इसमें उल्लिखित अनेक भट्टारकों के नाम और उनका काल ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक प्रतीत होता है। इनके नाम एवं काल की पुष्टि इंडियन एंटीक्यूरी के आधार पर तैयार की गई नन्दी संघ की पट्टावली एवं कतिपय शिलालेखों से भी होती है । इसी कारण यह लघु पुस्तिका इतिहासविदों से गहन शोध की अपेक्षा करती है। आशा है शोधप्रिय इतिहासज्ञ इस सम्बन्ध में अग्रेतन शोध के माध्यम से प्राचार्य कुन्द-कुन्द के समय एवं उनके द्वारा श्रावकों के लिये प्रारम्भ किये गये यज्ञोपवीत आदि विधानों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार के अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य विस्मृति के गर्भ में अब भी छिपे पड़े हैं । अस्तु । चौथे भाग में भी इसी पुनीत उद्देश्य से विभिन्न गच्छों के पारस्परिक कलह, विद्वेष एवं लिंगायतों द्वारा जैन धर्मावलम्बियों के विरुद्ध चलाये गये भीषण धार्मिक अभियानों का विशद् विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। तीसरे भाग में देवद्धि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण से उत्तरवर्ती ४७५ वर्ष का जैनधर्म का इतिहास प्रस्तुत किया जा चुका है। तीसरे भाग के प्रालेखन हेतु किये गये शोध कार्य से पूर्व हमारी यह धारणा थी कि हम तीसरे भाग में वीर निर्वाण सम्वत् १००१ से २००० तक का जैन धर्म का इतिहास, जिनशासन के अनुयायियों एवं जैन इतिहास-प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत कर देंगे। परन्तु हम उसमें एक हजार वर्ष के स्थान पर केवल ४७५ वर्षों का ही इतिहास, सामग्री बाहुल्य के कारण, प्रस्तुत कर पाये हैं । शताब्दियों से जैन इतिहास के आलेखन के सम्बन्ध में प्रयास करने वाले मनीषियों ने समय-समय पर अनेक बार अथक प्रयास करने के उपरान्त अपना यह अभिमत अभिव्यक्त कर दिया था कि देवद्धि गरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् का लगभग ५००, ७०० वर्ष का इतिहास विस्मृति के गहरे गह्वर में विलीन हो चुका है। उन मनीषियों की इसी मान्यता को ध्यान में रखते हुए हमारा यह अनुमान था कि हम तीसरे भाग में वीर निर्वाण सम्वत् १००१ से २००० हजार तक का जैन धर्म का एक हजार वर्ष का इतिहास जैन जगत् के सम्मुख प्रस्तुत कर सकेंगे। पर तीसरे भाग के आलेखन के उपक्रम में जब ऐतिहासिक तथ्य एकत्रित करने हेतु शोध कार्य प्रारम्भ किया गया तो हमें तमिलनाडु और कर्णाटक प्रदेश में जैन इतिहास सम्बन्धी इतने अधिक तथ्य उपलब्ध हो गये कि वीर निर्वाण सम्वत् १००१ से १४७५ तक का चार सौ पिचहत्तर वर्ष का इतिहास लिखने में ही पुस्तक का कलेवर लगभग एक हजार पृष्ठ तक पहुंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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