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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
मुखवस्त्रिका न होने के कारण नाढ़ी नाम की वह श्राविका मूनि नरसिंह के समक्ष बिना वन्दन किये ही चुपचाप खड़ी रही ।
यह देख कर उस पापी मुनि नरसिंह ने कहा - " बहिन ! प्रोढ़नी के अंचल से ही वन्दन कर लो ।"
इस प्रकार के निर्देश के प्राप्त होते ही नाढ़ी ने ओढ़नी के अंचल को मुख के आगे रखते हुए नरसिंह मुनि को वन्दन - नमन किया ।
उस समृद्धिशालिनी, अन्धी एवं वयोवृद्धा महिला नाढ़ी के ग्रहं को किसी पौणिमीयक प्राचार्य ने कुछ समय पूर्व ठेस पहुंचाई थी । इस कारण वह उस आचार्य के प्रति द्वेषभाव रखने लगी । वह घटना इस प्रकार घटित हुई कि पूर्णिमा गच्छ के एक आचार्य 'छउरणय' ग्राम में आये । उन्होंने श्रद्धालु भक्तों से पूछा"आप लोगों के धार्मिक कार्यों का निर्वहन तो भलीभांति हो रहा है न ?"
भक्त समूह ने उत्तर दिया “नाढ़ी की कृपा से बड़ी अच्छी तरह चलता है ।" प्राचार्य ने कहा – “यह क्यों कहते हो ? कैसी नाढ़ी ? यह क्यों नहीं कहते कि देव और गुरु के प्रसाद से सब कुछ सानन्द चल रहा है ।"
एक दिन उस ग्राम का श्रावक-श्राविकावर्ग उन आचार्य को वन्दन करने के लिये उपाश्रय में एकत्रित हुआ । किन्तु उस समृद्धा, वृद्धा श्राविका नाढ़ी को किसी कारणवश समय पर पहुंचने में विलम्ब हो गया । इस कारण नाढ़ी के आने की प्रतीक्षा में आबाल वृद्ध नर-नारी बड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहे । उपस्थित जनसमूह में से एक व्यक्ति ने कहा - "जब तक नाढ़ी न आ जाय, तब तक उसकी प्रतीक्षा की जाय । उसके यहां आ जाने के पश्चात् ही वन्दन किया जाय ।"
आचार्य ने नाढ़ी (नाथी) की अवहेलना करते हुए कहा - "उसकी प्रतीक्षा में आप लोग व्यर्थ ही कब तक खड़े रहोगे ? आप लोग ही वन्दन कर लो ।”
श्राद्ध वर्ग ने ग्राचार्य के कथनानुसार श्रमणोपासका नाढ़ी की बिना और अधिक प्रतीक्षा किये ही वन्दन कर लिया और वन्दनानन्तर सब लोग अपने-अपने घर की ओर लौट गये ।
ने जब यह सब वृत्तान्त सुना तो वह बड़ी रुष्ट हुई और उसने कहा"आचार्य ने जान-बूझ कर मेरा अपमान किया है, मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाई है ।"
पूर्णिमागच्छ के उन प्राचार्य के प्रति नाढ़ी के इस प्रकार के द्वेषभाव का वृत्तान्त मुनि नरसिंह को विदित हो गया था । ग्रतः वह उग्र विहारक्रम से छउरणय
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