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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
अंचलगच्छ
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हो सकता है कि वि० सं० १२१३ में विधिपक्ष का दूसरा नाम अंचलगच्छ रखने के अनन्तर राजा कुमारपाल रक्षितसूरि के दर्शन एवं वन्दन-नमन के लिये तिमिरपुर गये हों।
अंचलगच्छ के प्रादुर्भावकाल के सम्बन्ध में दूसरी विचारधारा विक्रम की १७वीं शताब्दी के तपागच्छीय विद्वान् ग्रन्थकार उपाध्याय श्री धर्मसागर द्वारा रचित 'प्रवचन परीक्षा' नामक खण्डन-मण्डनात्मक ग्रन्थ से प्रकाश में आती है। उपाध्याय धर्मसागर ने अंचलगच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है
अह अंचलिग्रं कुमयं, लोअपसिद्ध पि किंचि दंसेमि । तेरुत्तर बारसए, विक्कमो अहमकम्मुदया ।।१।। पुणि मित्रो नरसिंहो, नामेणंएगनयण दुव्वयणों। केणवि अवराहेणं, तेहि बि बाहिको प्रासी ।।२।। सो पुरण कमेण छउणयगामे, पत्तो अ तत्थ तम्मइया । लोग्रणरहिया नाढीति सड्ढी वि महिड्ढिा वुड्ढा ।।३।। तीए वंदणदाणावसरे मुहपत्तिा वि णे पत्ता। देहंचलेण वंदण मित्र, मणिग्रं तेण पावेण ।।४।। सा पुरण पुव्वं पुणिम गुरूण केरणावि दूमिया प्रासी । नरसिंहस्स वि भइणी, दोहिवि पयडीकयं कुमयं ।।५।। तीए सूरिपयं वि अ, दवाविग्रं असहस दविणेणं । तस्सज्ज रक्खिएणं, नामेणं चिइनिवासीहिं ।।६।।
अर्थात्-पांचलिक (अंचलगच्छ) नामक कुमत यद्यपि लोक-प्रसिद्ध है तथापि मैं इसके सम्बन्ध में प्रकाश डाल रहा हूं।
वि० सं० १२१३ में अधमकर्म (हीन कर्म) के उदय से पौरिणमिक गच्छ के एक आंख के धनी (काणे) और कटुभाषी नरसिंह नामक एक साधु ने अंचलगच्छ की स्थापना की। उसे किसी अपराध के कारण पौरिणमिक गच्छ से बहिष्कृत कर दिया गया था। गच्छ से वहिष्कृत नरसिंह नामक वह साधु विविध क्षेत्रों में विचरण करता हुआ 'छउणय' नामक ग्राम में पहुंचा । उस ग्राम में पौरिणमिक गच्छ की श्रमणोपासिका नाढी नाम की एक अतीव वद्ध अन्धी एवं अपार ऋद्धि की स्वामिनी महिला रहती थी। नरसिंह मुनि के आगमन का समाचार सुन कर वह वृद्धा महिला नाढ़ी उन्हें वन्दन करने के लिये उपाश्रय में पहुंची। वन्दन का उपक्रम करते समय नाढ़ी ने अनुभव किया कि वह अपनी मुखवस्त्रिका घर पर ही भूल आई है ।
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