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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ इसके पश्चात् महाराजा कुमारपाल रक्षितसूरि (विजयचन्द्रसूरि) के दर्शनों की अभिलाषा से तिमिरपुर गये और उन्होंने वहां बड़े भक्तिभाव के साथ रक्षितसूरि को वन्दन-नमन किया।
वीरवंशावली अपर नाम विधिपक्ष गच्छ पट्टावली में उल्लिखित इस विवरण से यह प्रकट होता है कि प्राचार्यश्री रक्षितसूरि की विद्यमानता में ही महाराजा कुमारपाल ने विधिपक्ष का नाम अंचलगच्छ भी रख दिया ।
विधिपक्ष की स्थापना के कुछ समय पश्चात् इस गच्छ का नाम अंचलगच्छ रखा गया होगा, इस बात की पुष्टि 'विधिपक्ष पट्टावली' में उल्लिखित तथ्यों से भी होती है। उदाहरण के रूप में, विधिपक्ष की स्थापना के अनन्तर विजयचन्द्रसूरि अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए कालान्तर में विउणप्पनगर में पधारे। वहां श्रेष्ठि कपदि उनके उपदेशों से प्रबुद्ध हुआ और उसने श्रावक धर्म अंगीकार किया। इस उल्लेख के सन्दर्भ में अंचलगच्छ नामकरण के सम्बन्ध में विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि विधिपक्ष की स्थापना हो जाने के पश्चात् ही कपर्दि श्रेष्ठि ने श्रावक धर्म अंगीकार किया और श्रावक धर्म अंगीकार करने के पर्याप्त समय पश्चात् उसने पाटण में महाराजा कुमारपाल के समक्ष हेमचन्द्राचार्य को उत्तरासंग से वन्दन-नमन किया। कुमारपाल को यह देख कर आश्चर्य हुआ । उसने गुरु से इसका कारण पूछा और गुरु द्वारा समीचीनतया समाधान कर दिये जाने पर उसने विधिपक्ष का नाम अंचलगच्छ रखा। विधिपक्ष पट्टावली में इस बात का तो स्पष्ट उल्लेख है कि विधिपक्ष का नामकरण अंचलगच्छ करने के पश्चात् कुमारपाल विधिपक्ष के संस्थापक प्राचार्य रक्षितसूरि के दर्शनों के लिये तिमिरपुर गया, किन्तु पट्टावली में इस प्रकार का कहीं कोई उल्लेख नहीं है कि कुमारपाल किस सम्वत् में रक्षितसूरि के दर्शनार्थ तिमिरपुर गया । इस प्रकार की प्रमाणाभाव की स्थिति में आधिकारिक रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि परमाहत् महाराज कुमारपाल आर्य रक्षितसूरि के दर्शन हेतु किस सम्वत् में तिमिरपुर गये और उन्होंने किस सम्वत् में विधिपक्ष का नाम अंचलगच्छ रखा। ऐसी दशा में, अन्य पट्टावलियों में उल्लिखित अंचलगच्छ की स्थापना के सम्वत १२१३ की संगति बिठाने के लिये यदि यह कहा जाय कि वि० सं० १२१३ में कपर्दि श्रावक को उत्तरासंग से वन्दननमन करते हुए देख कर कुमारपाल ने विधिपक्ष गच्छ का नाम अंचलगच्छ रखा तो यह कथन सम्भवतया अनुमानित किया जा सकता है किन्तु किसी ठोस आधार के बिना इसे प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता । सम्भव तो इसलिये कहा जा सकता है कि विधिपक्ष के संस्थापक आर्य रक्षितसूरि वि० सं० १२३६ में और
आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि वि० सं० १२२६ में स्वर्गस्थ हुए तथा महाराज कुमारपाल __ का देहावसान वि० सं० १२३० में हुआ ।' इस प्रकार की स्थिति में यह संभव तो १. (क) श्री वीरवंशपट्टावली, गाथा सं० ११५ ।
(ख) अपभ्रंश काव्यत्रयी पृष्ठ सं० ६४ पर मानचित्र ।
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