________________
५२२ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्राचार्य आर्य रक्षितसूरि के उदयाचल रोहणगिरि तुल्य पट्ट पर प्रारूढ़ जयसिंहसूरि सदा जयवन्त हों।
__ इन गाथाओं से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि विजयचन्द्रसूरि का ही दूसरा नाम आर्य रक्षित रखा गया था। शिथिलाचार के गहन दलदल में निमग्न श्रमण धर्म की विजयचन्द्रसूरि ने "विधि पक्ष-अंचलगच्छ" स्थापित कर रक्षा की। सम्भवतः इसी ऐतिहासिक घटनाचक्र को अमर-चिरस्थायी स्वरूप प्रदान करने के अभिप्राय से श्रद्धालु भक्तों ने उनका नाम आर्य रक्षित रखा हो। गाथा सं० १०१ में स्पष्टतः उल्लेख है कि जासिग को उनके गुरु आर्य रक्षित ने सूरि पद पर अधिष्ठित किया और उन आर्य रक्षित के पट्ट रूपी उदयाचल पर आरूढ़ सूर्य के समान जयसिंहसूरि जयवन्त हो । इसी पट्टावली की गाथा संख्या ५८ एवं ६८ में जैसा कि पिछले पृष्ठों में बताया जा चुका है, विजयचन्द्रसूरि ने अपने धर्मोपदेश से प्रबुद्ध श्रावक यशोधन को उत्तरासंग से षडावश्यक और द्वादश आवर्तपूर्वक गुरु को वन्दन करने का आदेश दिया। पूर्व में उल्लिखित इन गाथाओं पर विचार करने पर भी इस बात की पुष्टि होती है कि विजयचन्द्रसूरि ही आर्य रक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुए।
__ किसी भी श्रमणोपासक द्वारा उत्तरासंग से गुरु वन्दन का उल्लेख आगमों को छोड़ अंचलगच्छ के विद्वानों द्वारा किये गये इस उल्लेख के अतिरिक्त जैनवांग्मय में अन्यत्र कहीं खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होता।
- इन सब उल्लेखों को दृष्टिगत रखते हुए तटस्थ रूप से विचार करने पर इस बात में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रह जाती कि आचार्यश्री विजयचन्द्रसूरि ने अंचलगच्छ की स्थापना की और उन विजयचन्द्रसूरि का ही दूसरा नाम आर्य रक्षितसूरि था।
प्रसिद्ध इतिहासविद् प्रोफेसर पीटर्सन ने भी गहन शोध के अनन्तर आर्य रक्षित को ही विधि पक्ष (अपर नाम अंचलगच्छ) का संस्थापक मानते हुए लिखा है :
Arya Raksbita
Founder of the Anchal and Vidhi Paksha Gachchha Guru of Jaisingha, who was Guru of Dharmaghosha, (8 App, P. 219.). This Dharmaghosha wrote in Samvat 1263, Sankhya. (1 App. P. 12.)
__ In Merutunga's Shatpadi- Saroddhar (Nos. 1340. 1, of this report collection). It is stated that this Arya Rakshit was born in samvat 1136, in the village Dantani (दंताणी), that he took vrat in samvat 1142 and
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org