SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 540
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अंचलगच्छ [ ५२१ दिया। पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य के प्रताप से प्राप्त 'एकसन्धि-लब्धि' के प्रभाव से, एक बार के पढ़ने मात्र से ही जासिग को सम्पूर्ण दशवैकालिक सूत्र कण्ठस्थ हो गया। - चैत्यवन्दन के अनन्तर विजयचन्द्रसूरि जब उपाश्रय में लौटे तो जासिग ने विनयावनत हो प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति के साथ सूरीश्वर को वन्दन-नमन किया। सूरिवर के पूछने पर अपने परिचय के साथ ही जासिग ने श्रमरण धर्म में दीक्षित होने की अपनी प्रान्तरिक इच्छा प्रकट की। ___ शुभ मुहूर्त में जासिग ने विजयचन्द्रसूरि से पंच महाव्रत रूप निर्ग्रन्थ श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की । अतीव मेधावी, सुयोग्य एवं सुपात्र शिष्य को गुरु ने व्याकरण, तर्क, साहित्य, छन्द, अलंकार आदि के साथ-साथ पागमों का अध्ययन कराना प्रारम्भ किया । अथक परिश्रम, पूर्ण विनय एवं गुरु के कृपाप्रसाद से मुनि जासिग पांच वर्षों में ही श्रुतसागर के पारगामी विद्वान् बन गये। सभी गुणों और शुभ लक्षणों से सम्पन्न अपने शिष्य जासिग मुनि को प्राचार्यपद के भारवहन में सर्वथा सुयोग्य समझ कर विजयचन्द्रसूरि ने उन्हें बड़े ठाट-बाट के साथ “विउणप्पनगर" में सूरि पद पर अधिष्ठित किया। सूरि पद प्रदान करते समय विजयचन्द्र मुनि ने मुनि जासिग का नाम जयसिंहसूरि रख दिया। भावसागरसूरि द्वारा "श्री वीरवंश-पट्टावली" में जो निम्नलिखित तीन गाथाएं निबद्ध की गई हैं, वे इस तथ्य पर स्पष्टतः प्रकाश डालती हैं कि जयसिंहसूरि के गुरु विजयचन्द्रसूरि का ही अपर नाम रक्षितसूरि था। सत्यान्वेशी शोधरुचि विज्ञों को निर्विवाद निर्णय पर पहुंचने में वे तीन गाथाएं बड़ी ही सहायक सिद्ध होंगी, अत: उन गाथाओं को यहां उद्धृत किया जा रहा है : वागरण-तक्क-साहिच्च-छन्दऽलंकार-आगमाईणं । सुयसागराण पारगो जाग्रो सो पंच वरिसेहिं ।।१६।। महया डम्बरजुत्तं सूरिपयं तस्स विउरणपे जायं । जयसिंहसूरि नामो जाम्रो भूमीय सिंगारो ।।१०।। सूरिपए संठविया नियगुरु सिरि अज्ज रक्खियभिहाणा । तप्पट्टि उदयगिरि रवि सिरि जयसिंहो जयउ सूरी ॥१०१।। अर्थात् व्याकरण, तर्क, साहित्य, छन्द, अलंकार और एकादशांगी आदि आगमों का निरन्तर पांच वर्षों तक विजयचन्द्रसूरि के पास अध्ययन करते हुए जयसिंह मुनि निखिल श्रुतसागर के पारगामी विद्वान् बन गये । तदनन्तर उनके गुरु (विजयचन्द्रसूरि) ने उन्हें (मुनि जयसिंह को) विउणप्प नगर में बड़े ही आडम्बर अर्थात् ठाट-बाट से महोत्सव के साथ सूरि पद अर्थात् प्राचार्यपद पर अधिष्ठित किया। इस प्रकार जयसिंहसूरि नामक ये प्राचार्य वसुधरा के श्रृगार बन गये। श्री जय सिंह को उनके श्री आर्य रक्षित नामक गुरु ने सूरिपद पर अधिष्ठित किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy