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प्रचलगच्छ
हुण्डावसपिणी काल के प्रभाव से उदित हुई द्रव्य परम्पराओं द्वारा विकृत एवं धूमिल कर दिये गये जैनधर्म के स्वरूप को लोक में, जन-जन में पुनः प्रागमानुसारी विशुद्ध मूल रूप में संस्थापित अथवा प्रतिष्ठापित करने की दिशा में समयसमय पर जिन यशस्वी गच्छों के आचार्यों ने उत्कट त्याग एवं तपश्चर्या के माध्यम से शासन हितकारी प्रशस्त एवं प्रबल प्रयास किये, उनमें अंचलगच्छ का नाम भी जैन इतिहास में सदा अग्रणी एवं उल्लेखनीय रहेगा।
अंचलगच्छ की संस्थापना से लेकर आज तक उसकी सब से बड़ी विशेषता यह रही है कि इस गच्छ के प्राचार्यों तथा श्रमणों ने पारस्परिक वैमनस्योत्पादक खण्डन-मण्डनात्मक प्रपंचों से कोसों दूर रह कर एक मात्र अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते रहने की सृजनात्मक नीति को ही अपनाये रखा।
मध्ययुगीन जैन वांग्मय के अध्ययन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि अपने गच्छ के अतिरिक्त शेष सभी गच्छों को हीन से हीनतर शब्दों अथवा सम्बोधनों से सम्बोधित करने वाले गच्छविशेष के प्रतिष्ठित पद पर आसीन पालोचक श्रमणों ने अंचलगच्छ के प्राचार्यों, साधु-साध्वियों एवं अनुयायियों को "स्त निक" (स्तनों को ढंकने वाली साड़ी, लूगड़ी अथवा प्रोढ़नी के अंचल-पल्ले का उपयोग करने वाले) जैसे हल्के शब्द से सम्बोधित किया', जैनाभास, उत्सूत्रप्ररूपक, जमाली (प्रथम निह्नव) के वंशज अथवा अनुयायी तक लिख डाला, किन्तु अंचलगच्छीय किसी श्रमरण, उपाध्याय अथवा प्राचार्य ने उफ तक नहीं किया । सब ने बड़े संयम के साथ समभाव रखते हुए उस गरल का अमृतवत् पान कर लिया। केवल
१. (क) शतपदीवचनात्-महेन्द्रसूरिकृत शतपदीनाम्नः स्तनिकमत समाचारी ग्रन्थात पूर्व
आंचलिकमतप्रवृत्तिकाले........... ।
-प्रवचनपरीक्षा, पूर्वभाग, वि० ५ पृ० ४३६ (ख) येन कारणेन तीर्थात् बहिर्भवने स्तनिकस्य महत् चिह्न तेन कारणेनेह मुखवस्त्रिका
स्थापनप्रकरणं पूणिमापक्ष स्थितोऽपि च श्री वर्द्धमानाचार्य अकार्षीत्...
-वही-पृ० ४५० (ग) तीर्थ बाह्यो राकारक्तोऽपि निजसमुदायात् बहिर्भूतस्तनिक प्रतिबोधाय मुखवस्त्रिका
व्यवस्थापकं प्रकरणं कृतवान् । -वही-पृ० ४५०
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