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________________ ५१२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अपने गच्छ को ही दूध का धुला स्वच्छ-अच्छ-निर्मल एवं सच्चा सिद्ध करने के प्रयास में अन्य गच्छ के अनुयायियों के लिये कठोर, कटु एवं हल्के विशेषरणों का प्रयोग करने वाले तपागच्छ के विद्वान् लेखकों को खरतरगच्छीय लघु शाखा के प्राचार्य जिनप्रभ ने उसी सिक्के में उत्तर दे कर इस प्रकार के लेखकों का मुंह बन्द कर दिया ।' किन्तु अंचलगच्छ के विद्वान् लेखकों ने अपने संघ पर कीचड़ उछालने वाले लेखकों के और उनके गच्छ के विरुद्ध कभी कहीं एक शब्द तक नहीं लिखा। खरतरगच्छ के समान अंचलगच्छ की उत्पत्ति भी वस्तुतः शिथिलाचार के गहन दलदल में धंसे जिनशासन-संघरथ के उद्धार हेतु किये गये क्रियोद्धार के परिणामस्वरूप ही हुई। अन्तर केवल इतना है कि खरतरगच्छ के मूल पुरुष वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासी परम्परा का परित्याग करके आमूलचूल क्रियोद्धार अथवा समग्र धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया था और अंचलगच्छ के पूर्व पुरुष विजयचन्द्रसूरि ने चैत्यवासी परम्परा जैसी किसी भिन्न परम्परा से नहीं वरन् शिथिलाचार में निमग्न सुविहित परम्परा से ही निकल कर क्रियोद्धार का शंखनाद बजाया था। विजयचन्द्रसूरि ने जिस समय अपने गुरु और अपनी सुविहित परम्परा से पृथक् होकर क्रियौद्धार किया, उस समय चतुर्विध संघ में चारों ओर व्याप्त शिथिलाचार के परिणामस्वरूप निर्दोष एषणीय अशन-पान का मिलना भी एक प्रकार से असंभव सा हो गया था। इस कारण क्रियोद्धार के अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु विजयचन्द्रसूरि ने अपने तीन साथी साधुओं के साथ अपने प्राणों की भी बाजी लगा दी। अंचलगच्छ के उद्भव की पृष्ठभूमि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंचलगच्छ के प्राचार्य भावसागरसूरि द्वारा रचित-"श्री वीरवंशपट्टावलि" अपर नाम "विधिपक्ष-गच्छ पट्टावलि" में श्री विजयचन्द्रसूरि द्वारा किये गये महान् क्रियोद्धार का जो विवरण उल्लिखित है, उसका अतिसंक्षिप्त सारांश इस प्रकार है : "देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर दुस्सह्य दुःषम काल के प्रभाव से एक सहस्र वर्ष तक एकता के सूत्र में आबद्ध चला पा रहा जैनधर्मसंघ शाखाप्रशाखाओं, कुलों, गरणों, गच्छों आदि में विभक्त हो गया। विद्या और क्रिया का जहां तक प्रश्न है श्रमण-श्रमणी समूह विद्या और क्रिया-दोनों ही दृष्टियों से वस्तुतः दुर्बल हो गया था। इस प्रकार भ. महावीर का विश्वकल्याणकारी यशस्वी धर्म शासन वास्तव में सूत्र रहित १. शाकिनीमुद्गलात्तानां, दृश्यतेऽद्याप्युपक्रमः । तपोटेनादितानां तु, चिकित्सास्याद्दरा भृशम् ।। -तपोटमतकुट्टन (जिनप्रभसूरि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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