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________________ उपकेशगच्छ उपकेशगच्छ के सम्बन्ध में "उपकेशगच्छ पट्टावली" और "भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास"१ (भाग १ और २) नामक वृहदाकार ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक इस गच्छ के प्रथम प्राचार्य से लेकर ८५वें प्राचार्य देव गुप्तसूरि के समय अर्थात् विक्रम की बीसवीं शताब्दी के अन्त तक का इतिहास उपलब्ध होता है। यद्यपि भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि श्रमण भगवान् महावीर द्वारा धर्मतीर्थ की स्थापना के अनन्तर पार्श्वनाथ सन्तानीय प्राचार्य केशि श्रमण आदि सभी श्रमणों ने चातुर्याम धर्म का परित्याग कर प्रभु महावीर द्वारा प्रदर्शित पंच महाव्रत स्वरूप श्रमण धर्म को अंगीकार किया तथापि पट्टावलीकार ने उपकेशगच्छ को २३वें तीर्थंकर पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ की अविच्छिन्न परम्परा का मूल अंग बताते हुए इसे श्रमण भगवान् महावीर के धर्म संघ से पृथक् स्वतन्त्र धर्म संघ बताने का प्रयास किया है । यह वस्तुतः एक ऐसा आश्चर्यकारी प्रयास है, जिस पर गहन चिन्तन-मनन के उपरान्त भी विश्वास नहीं किया जा सकता। . उत्तरवर्ती तीर्थंकर के धर्म शासन के साथ-साथ किसी पूर्ववर्ती तीर्थंकर का भी धर्म शासन चला हो इस प्रकार का एक भी उदाहरण शास्त्रों में उपलब्ध नहीं होता। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप विभिन्न गच्छों में उत्पन्न हुए कलह, विद्वेष एवं अहंभाव के वातावरण में किसी समय उपकेशगच्छ को सर्वाधिक प्राचीन, यहां तक कि भगवान् महावीर से भी पूर्व का गच्छ सिद्ध करने के व्यामोहाभिभूत किसी उपकेशगच्छीय प्राचार्य के मस्तिष्क की यह वस्तुतः कपोल कल्पना मात्र ही सिद्ध होती है । तथापि किसी गच्छ विशेष की स्वतन्त्र भावना को ठेस न पहुँचे इसी दृष्टि से उपकेशगच्छ का पूर्ण परिचय इस ग्रन्थमाला में दिया जा रहा है। १. उपकेशगच्छ के ८५वें प्राचार्य देवगुप्तसूरि द्वारा निर्मित भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास । देवगुप्तसूरि ने विक्रम सम्वत् १६६३ की फाल्गुन कृष्णा छठ के दिन स्थानकवासी प्राचार्य श्री श्रीलालजी महाराज के पास दीक्षा ली। कुछ वर्ष पश्चात् ही वे गृहस्थ बन गये और विक्रम सम्वत् १९७२ में उन्होंने रत्नविजयजी के पास संवेगी दीक्षा ग्रहण कर ली और कुछ समय पश्चात् पापको उपकेशगच्छ के प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया । मारवाड़ के वीसलपुर नामक ग्राम में श्रेष्ठिवर श्री नवलमलजी की धर्म परायणा धर्मपत्नी रूपांदेवी की कुक्षी से प्रापका विक्रम सम्वत् १९३८ की आश्विन शुक्ला दशमी को जन्म हुमा । आपका जन्मनाम घेवरचन्द रखा गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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