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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
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चैत्यवासियों ने दुर्लभराज से निवेदन किया- "राजन् ! शताब्दियों से इसी प्रकार की व्यवस्था पट्टण राज्य में चली आ रही है । अपने पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा निर्धारित की गई मर्यादा का शासक सदा से सम्मान करते आये हैं । "
खरतरगच्छ
दुर्लभराज ने कहा - "अपने पूर्ववर्ती राजानों द्वारा प्रचलित की गई मर्याका हम भी सम्मान करते हैं किन्तु गुरणी महापुरुषों की पूजा करना भी हमारा परम कर्त्तव्य है । अपने इस कर्त्तव्य से भी हम किसी प्रकार विमुख नहीं रह सकते ।"
अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अपने आपको असफल होते देख चैत्यवासी प्राचार्य ने कहा - "राजन् ! ये लोग नामधारी जैन श्रमरण हैं । वस्तुतः देखा जाय तो ये जैन संघ बाह्य ही नहीं, अपितु षड्दर्शन बाह्य भी हैं ।"
दुर्लभराज ने पूछा - " इसका निर्णय कैसे किया जाय ?"
चैत्यवासी आचार्य ने कहा - "शास्त्रार्थ से । राजन् ! शास्त्रार्थ से हम यह सिद्ध कर देंगे कि वस्तुतः हम लोग चैत्यवासी परम्परा के श्रमरण ही सच्चे जैन श्रमरण हैं । न कि ये सित्पट वसतिवासी ।"
विचार-विमर्श के अनन्तर शास्त्रार्थ के लिये दिन व समय निश्चित किया गया । निश्चित समय पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । वर्द्धमानसूरि ने अपने विद्वान् शिष्य जिनेश्वरसूरि को अपनी ओर से शास्त्रार्थ करने का अधिकार दिया ।
शास्त्रार्थ के प्रारम्भ में चैत्यवासियों के मुख्याचार्य सूराचार्य ने अपना पूर्व पक्ष रखा कि श्वेतपटधारी वसतिवासी साधु वस्तुतः जैन श्रमण नहीं हैं । वे षड्दर्शन बाह्य हैं | अपने इस पक्ष की पुष्टि हेतु प्रागमिक प्रमाण प्रस्तुत करने के लिये सूराचार्य ने अपनी परम्परा के पूर्वाचार्यों द्वारा रचित निगम कहे जाने वाले ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ उठाया और उसका कोई उद्धरण प्रस्तुत करने का उपक्रम किया ।
दूरदर्शी जिनेश्वरसूरि ने जिज्ञासापूर्ण मुद्रा में दुर्लभराज से प्रश्न किया"महाराज ! आपका यह सुशासन आपके द्वारा निर्मित राजनीति के आधार पर चलाया जाता है, अथवा आपके पूर्वपुरुषों द्वारा निर्मित राजनीति के आधार पर ?" दुर्लभराज ने तत्काल उत्तर दिया- "महात्मन् ! हम अपने पूर्व-पुरुषों, राजषियों और ब्रह्मषियों द्वारा निर्धारित राजनीति के आधार पर ही शासन-प्रशासन तन्त्र को चलाते हैं, न कि स्वयं द्वारा नवनिर्मित किसी राजनीति के आधार पर ।"
जिनेश्वरसूरि ने अपने विरोधियों को किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में डालते हुए कहा- "महाराज ! हम लोग भी भगवान् महावीर के उपदेशों के आधार
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