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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
पर गणधरों द्वारा रचित और चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा सार रूप में संकलित आगमों को ही सर्वथा प्रामाणिक मानते हैं। हमारी धर्मनीति भी आपकी राजनीति की भांति ही उन महापुरुषों द्वारा निर्मित आगमों के आधार पर ही चलती है।"
___ महाराज दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि की बात पर अपनी पूर्ण सहमति प्रकट करते हुए कहा--"यह तो सर्वथा उचित ही है ।"
जिनेश्वरसूरि ने कहा-“महाराज ! हम सुदूरस्थ प्रदेश से विचरण करते हुए यहाँ आये हैं । इस कारण हमारे पास यहां आगम नहीं हैं। इन चैत्यवासी प्राचार्यों के मठों में हैं । वहाँ से जैनागमों का बस्ता मंगवा लिया जाय। उनसे सहज ही सिद्ध हो जायगा कि कौन खरा है और कौन खोटा।"
दुर्लभराज ने अपने अधिकारियों को मठ में भेजकर वहां से आगमों का बंडल मंगवा लिया।
__उस बंडल में से जिनेश्वरसूरि ने चतुर्दश पूर्वधर आचार्य शय्यंभवसूरि द्वारा द्वादशांगी में से सार रूप में संकलित ग्रथित आगम ग्रन्थ दशवैकालिक सूत्र छांट कर निकाला और उसके आधार पर सच्चे साधु के स्वरूप को बड़ी कुशलतापूर्वक सभा के समक्ष रखा, जिससे प्रत्येक सभासद् को भली-भांति विश्वास हो गया कि चैत्यवासी श्रमणों का प्राचार-विचार शास्त्रों से पूर्णतः प्रतिकूल और वसतिवासियों का आचार-विचार-व्यवहार शास्त्रों में बताये गये श्रमणों के स्वरूप के पूर्णतः अनुरूप है । जिनेश्वरसूरि द्वारा शास्त्रार्थ के समय राजसभा में रखे गये शास्त्रीय उद्धरणों से प्रत्येक सभ्य ने यह अनुभव किया कि चैत्यों में नियत निवास सर्वज्ञ प्रणीत आगमों में प्रदर्शित श्रमण जीवन के लिये सर्वथा निषिद्ध है। मधुकरी, अप्रतिहत विहार, स्व-पर-कल्याण हेतु आगमों का अध्ययन-अध्यापन, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का जीवन पर्यन्त त्रिकरण त्रियोग से निर्दोष रूप से परिपालन ही आगमों के उल्लेखों के अनुसार एक सच्चे श्रमण की विशुद्ध श्रमणचर्या है।
महाराजा दुर्लभराज शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि द्वारा आगमिक प्रमाणों के साथ रखी गई युक्तियों से बड़े प्रभावित हुए। उनके मुख से सहसा यह उद्गार प्रकट हुए–“ये खरे हैं” अर्थात् आगम की कसौटी पर सौ टंच सोने की भांति ये खरे उतरे हैं।
अन्ततोगत्वा शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि को विजयी घोषित किया गया और प्रणहिल्लपुर पट्टण में वसतिवास की परम्परा ने जैन धर्म के सच्चे स्वरूप का प्रचारप्रसार करना प्रारम्भ किया।
___"ये खरे हैं।" राजा के मुख से निकले हुए ये उद्गार जन-जन के मुख से प्रतिध्वनित होने लगे। वस्तुतः यह कोई उपाधि या विरुद के रूप में राजा की
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