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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
भटों ने चैत्यवासी मुख्याचार्य के निर्देशानुसार सोमेश्वर राज पुरोहित के घर पहुंच कर वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्यों से कहा कि वे तत्काल अपहिल्लपुर पट्टण से बाहर चले जायं ।।
राज पुरोहित सोमेश्वर ने चैत्यवासियों द्वारा प्रेषित भटों को बीच में ही टोकते हुए कहा :-"ये महापुरुष पट्टण में ही रहें अथवा पट्टण छोड़ कर अन्यत्र विहार कर जायं, इस बात का निर्णय राज राजेश्वर महाराज दुर्लभराज के द्वारा उनकी राज सभा में ही होगा।"
भटों ने चैत्यवासी मुख्याचार्य को राज पुरोहित की बात सु .., .जसे सुनकर चैत्यवासी आचार्य स्तब्ध रह गये। उन्होंने चैत्यवासी अन्य प्राचार्यों और प्रमुख चैत्यवासी उपासकों के साथ विचार-विमर्श कर निश्चय किया कि इस व्याधि को शीघ्र ही मूलतः नष्ट कर दिया जाय । येन-केन प्रकारेण इन वसतिवासियों को शीघ्रातिशीघ्र पट्टण राज्य की सीमाओं से बाहर निकालने का उपाय किया जाय। चैत्यवासियों ने वर्द्धमानसूरि आदि के विरुद्ध एक षड्यन्त्र की रचना की। अपने विश्वासपात्र अनुयायियों के माध्यम से उन्होंने सम्पूर्ण पट्टण नगर में यह अफवाह फैला दी कि चालुक्य राज दुर्लभराज के राज्य को हड़पने के लिये किसी शत्रु राजा ने पट्टण नगर में अपने गुप्तचर भेजे हैं और वे गुप्तचर राज पुरोहित सोमेश्वर के घर पर ठहरे हुए हैं।
राजा के कानों तक भी यह अफवाह पहुंची किन्तु तत्काल ही सोमेश्वर ने राजा के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें वास्तविक स्थिति से अवगत करा दिया-राजन् ! मेरे घर में जो ठहरे हुए हैं, वे किसी शत्रुराजा के गुप्तचर नहीं, अपितु वेद-वेदांगादि . सभी धर्म शास्त्रों के पारगामी महापुरुष हैं। वे जैनाचार्य हैं एवं उनके साथ उनके विद्वान् शिष्य हैं । वे जन-जन के कल्याण के लिये, जन-जन को सच्चे धर्म का बोध कराने के लिये आपके राज्य के पट्ट नगर अणहिल्लपुर पट्टण में आये हैं।" :
इस प्रकार चैत्यवासियों द्वारा रचा गया घोर षड्यन्त्र विफल हो गया। किन्तु उन चैत्यवासियों ने दुर्लभराज से निवेदन किया-"महाराज! प्राचीन काल में वनराज चावड़ा का, उसकी असहाय शैशवावस्था में हमारे पूर्वाचार्य शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवचन्द्रसूरि ने लालन-पालन एवं शिक्षण-दीक्षण किया । वनराज को सुयोग्य बनाया और अन्ततोगत्वा शीलगुणसूरि के कृपा प्रसाद से ही वे विशाल राज्य के स्वामी बने । हमारे पूर्वाचार्य शीलगुणसूरि की सहायता से ही उन्होंने इस अणहिल्लपुर पट्टण नगर को बसाया । अपने गुरु के महान् उपकारों से उऋण होने के लिए कृतज्ञ वनराज चावड़ा ने इस प्रकार की राजाज्ञा प्रसारित की कि अणहिल्लपुर पट्टण राज्य में चैत्यवासी परम्परा के और चैत्यवासी परम्परा द्वारा सम्मत साधु-साध्वी ही विचरण कर सकेंगे। जैन धर्म की शेष किसी भी परम्परा के साधु-साध्वी पट्टरण राज्य में विचरण नहीं कर सकेंगे।
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