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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ तड्-तट्' की ध्वनि सुनाई दी। कारण की खोज करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि एक ओर रक्खा उनका दंड स्वतः ही टूटकर दो टुकड़े हो गया है। उन्होंने विचार कर अपने शिष्यों से कहा :-"अब ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा यह यशस्वी खरतरगच्छ दो भागों में विभक्त हो जायगा। ऐसी स्थिति में मैं अपने हाथ से ही इसे दो भागों में विभक्त कर दूं तो अति उत्तम रहेगा।"
जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के दो प्रमुख शिष्य थे। एक का नाम था जिनसिंहसूरि जो कि जन्मना श्रीमाल जाति के थे। उनके दूसरे शिष्य का नाम जिनप्रबोधसूरि था, जो कि प्रोसवाल वंश में उत्पन्न हुए थे। अपने इन दोनों शिष्यों को आचार्य पद देकर अपने संघ को दो भागों में विभक्त करने का जिस समय जिनेश्वरसूरि विचार कर रहे थे, उसी समय श्रीमाल संघ अपने प्रदेश में विचरण करने के लिये किसी विद्वान् श्रमण को भेजने की प्रार्थना लेकर जिनेश्वरसूरि के समक्ष उपस्थित हुमा । विभिन्न नगरों एवं ग्रामों से आये हुए श्रीमाल जाति के प्रतिनिधियों ने जिनेश्वरसूरि को वन्दन-नमन के पश्चात् निवेदन किया-- "स्वामिन् ! हमारे प्रदेश में धर्म गुरुओं का आगमन नहीं होता । धर्म गुरुपों, साधुसाध्वियों का हमारे क्षेत्र में विचरण न होने के कारण हम लोगों का धर्माराधन नियमित रूप से भली-भांति नहीं होता । साधुओं के अभाव की स्थिति में हम लोग क्या करें? अतः आपसे प्रार्थना है कि आप कोई ऐसी व्यवस्था करें कि जिससे हमारे क्षेत्र में भी साधु-साध्वियों का विचरण नियमित रूप से होता रहे और हम लोग धर्माराधन कर अपने जीवन को सार्थक कर सकें।"
. श्रीमाल संघ की प्रार्थना सुनकर आचार्यश्री जिनेश्वरसूरि द्वितीय ने उन्हें अपने शिष्य जिनसिंहसूरि की ओर इंगित करते हुए कहा-"अाज से आप लोगों के गुरु ये जिनसिंह हैं।" उन्होंने श्रीमाल वंशोत्पन्न जिनसिंहसूरि को अपने पट्ट पर अपने पट्टधर प्राचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया और उनका नाम जयसिंहसूरि रक्खा । जिनेश्वरसूरि ने अपने शिष्य जयसिंहसूरि से कहा-"वत्स ! ये समग्र श्रावक-श्राविका समूह तुम्हें सौंपता हूं। तुम अपने श्रमण-श्रमणी संघ के साथ इनके क्षेत्र में विचरण करते हुए जिनशासन का प्रचार-प्रसार करो।"
- श्री जिनसिंहसूरि ने गुरु प्राज्ञा को शिरोधार्य कर अपने उन प्रमुख श्रावकों के साथ संघ सहित श्रीमाल क्षेत्र की ओर विहार किया। जिनसिंहसूरि के श्रीमाल क्षेत्र में पहुंचते ही ग्राम-ग्राम और नगर-नगर से श्रीमाल जैनों के विशाल समूह अपने धर्मगुरु के दर्शनों के लिये उपस्थित होने लगे। विभिन्न नगरों एवं ग्रामों से आये हुए उन श्रीमाल संघों ने जिनसिंहसूरि के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति प्रकट करते हए समवेत स्वरों में यह घोषणा की-“आज से ये श्रद्धेय जिनसिंहसूरि हमारे धर्माचार्य हैं।"
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