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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] खरतरगच्छ [ जिनेश्वरसूरि ने अपने दूसरे शिष्य जिन- प्रबोध को भी अपना पट्टधर एवं आचार्य पद प्रदान किया । ४८७ इस प्रकार विक्रम सम्वत् १२८० में खरतरगच्छ में दो शाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ और दोनों ही शाखाएं अपने-अपने आचार्य के नियन्त्रण में रहती हुईं स्व-पर-कल्याण में निरत रहीं । श्री जिनसिंहसूरि की परम्परा में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में श्री जिनप्रभसूरि नामक एक महान् जिनशासन प्रभावक एवं यशस्वी ग्रन्थकार प्राचार्य हुए । उन्होंने बादशाह तुगलक मोहम्मदशाह को प्रतिबोध देकर अनेक मारियां घोषित करवाईं । तुगलक मोहम्मदशाह ने इन्हें अपने दरबार में विशिष्ट सम्मान प्रदान किया। जिस प्रकार विक्रम की सौलहवीं सत्रहवीं शताब्दी में बादशाह अकबर हीर विजयसूरि का सम्मान करते थे, उसी प्रकार विक्रम की चौदहवीं शती में तुगलक मोहम्मद शाह श्री जिनप्रभसूरि का सम्मान करते थे । श्री जिनप्रभसूरि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के न केवल जिनशासन प्रभावक ही अपितु महान् ग्रन्थकार ग्राचार्य हुए हैं । उन्होंने विक्रम सम्वत् १३५२ साहित्य सृजन का कार्य प्रारम्भ किया जो विक्रम सम्वत् १३९० के पश्चात् तक अनवरत रूप से चलता रहा । आपने २७ ग्रन्थों और ७३ स्तोत्रों की रचना की । श्री जिनप्रभसूरि ने विक्रम सम्वत् १३६३ में अयोध्या नगरी में 'विधि प्रपा' नामक एक विशाल ग्रन्थ की और विक्रम सम्वत् १३६० में 'विविध तीर्थकल्प' नामक बड़े ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की, जो ग्राज भी जैन समाज के बहुसंख्यक वर्ग में इतिहास और धर्म दोनों ही दृष्टियों से बहुमान्य ग्रन्थरत्न हैं । इस ग्रन्थ के निदिध्यासन से प्रत्येक पाठक के हृदय पर श्री जिनप्रभसूरि द्वारा किये गये अथक् प्रयास की छाप अंकित हो जाती है । वस्तुतः श्री जिनप्रभसूरि ने भारत के इस तट से उस तट तक और इस छोर से उस छोर तक वर्षों तक भ्रमण कर अनेक ऐतिहासिक स्थलों के प्रत्यक्ष दर्शन करने के पश्चात् इस ग्रन्थरत्न की रचना की है । श्री जिनप्रभसूरि की लेखनी में बड़ा चमत्कार एवं अद्भुत् प्रोज था । साम्प्रदायिक विद्वेष के युग में जिस समय तपागच्छ के विद्वान् लेखकों द्वारा अन्य गच्छों की और मुख्यतः खरतरगच्छ की कटुतर आलोचना की जा रही थी, उस समय श्री जिनप्रभसूरि ने 'तपोटमत- कुट्टन' नामक ग्रन्थ निर्मित किया । उन्होंने उस ग्रन्थ में " हिनस्ति जन्मन्येकत्र, शाकिनी मुद्गलग्रहः । तपोटकुग्रहस्वेष, प्रणिहन्ति भवे भवे ।। " इस प्रकार के श्लोकों की रचना कर आपने-अपने विरोधियों के मुख बन्द कर दिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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