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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ । खरतरगच्छ [ ४८५ इस प्रकार उपाध्याय धर्मसागर ने न केवल श्री वर्द्धमानसूरि को ही अपितु उनके द्वारा प्रचलित की गई श्रमण परम्परा को मूलतः सुविहित परम्परा से भिन्न अलग-थलग परम्परा ही सिद्ध करने का प्रयास किया है। निम्नलिखित गाथा में तो उपाध्याय धर्मसागर ने खरतरगच्छ की आलोचना करने में पराकाष्ठा ही पार कर दी है । वह गाथा इस प्रकार है : तीए पमाणकरणे, अपमारणं सासणं समग्गं पि । कायव्वं विवरीया, जेणं दोण्णं वि दो पंथा ।। टीका :-खरतरमतमर्यादायाः प्रमाणकरणे समग्रमपि जिनशासनमप्रमाणं कर्त्तव्यमापद्यतेतिगम्यं, येन कारणेन खरतरमर्यादानप्रवचनयोयोविपरीतौ पंथानौस्त, न हि पूर्वाभिमुखमुव्रजन् पश्चिमाभिमुखमुव्रजन्तं मिलति, न वा तौ समभिलषितमेकं नगरं प्राप्नुतः इति,".... ___अर्थात् खरतरगच्छ की मर्यादाओं को प्रामाणिक मान लेने पर समग्र जिनशासन को ही अप्रामाणिक मानने जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी क्योंकि खरतरगच्छ की मर्यादा और जिन-प्रवचन ये दोनों परस्पर एक-दूसरे से भिन्न और विपरीत दिशाओं में ले जाने वाले हैं । जिस प्रकार एक व्यक्ति पूर्व की ओर मुंह करके चल रहा है और दूसरा पश्चिम की ओर अभिमुख हो तो वे दोनों कभी आपस में नहीं मिल सकते और न ही दोनों एक ही नगर में पहुंच सकते हैं; ठीक इसी प्रकार खरतरगच्छ की मर्यादाएं भी जिन-प्रवचनों से भिन्न और विपरीत दिशा में ले जाने वाली हैं। खरतरगच्छ को शाखा वर्द्धमानसूरि से लेकर उनके सातवें पट्टधर जिनपतिसूरि तक कालान्तर में खरतरगच्छ नाम से प्रसिद्ध रही श्री वर्द्धमानसूरि की परम्परा सुगठित एक इकाई के रूप में जिनशासन का प्रचार-प्रसार करती रही । जिनपतिसूरि के शिष्य द्वितीय जिनेश्वरसूरि के समय में, विक्रम सम्वत् १२८० में खरतरगच्छ को दो पृथक् प्राचार्यों के नेतृत्व में दो विभागों में विभक्त कर दिया गया । खरतरगच्छ में दो शाखाओं के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है : "जिनपतिसूरि के पट्टधर द्वितीय जिनेश्वरसूरि एक समय पल्लूपुर नामक नगर की अपनी पौषधशाला में बैठे हुए थे। सहसा उनके कर्णरन्ध्रों में ‘तड् १. प्रवचन परीक्षा पूर्व भाग, पृष्ठ ३०६, ३१० रतलाम से सन् १९३७ में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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