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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] खरतरगच्छ [ ४८३ पुरुषों के सामूहिक भजन कीर्तन रात्रि जागरण आदि प्रारम्भ हो गये । जिनवल्लभसूरि ने जिन चैत्यों की स्थापना-प्रतिष्ठा की, उनमें उन्होंने इस प्रकार की व्यवस्था की कि उन चैत्यों में उत्सूत्र, सूत्रों-पागमों से विपरीत प्ररूपणा न हो, रात्रि में स्नान आदि कार्य कलाप कदापि न किये जायं, इन मन्दिरों पर किसी भी साधु का स्वामित्व न रहेगा, और न इनके प्रति साधुओं के मन में ममत्व भाव । रात्रि में कोई भी स्त्री इन मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकेगी, यहां वर्ण, जाति प्रादि का किसी प्रकार का भेदभाव, कदाग्रह नहीं रखा जायगा और श्रावक श्राविका वर्ग द्वारा इन मन्दिरों में ताम्बूल चर्वण कभी नहीं किया जायगा। इस प्रकार के नियमों अथवा विधि-विधानों के परिणामस्वरूप जिनवल्लभसूरि ने अपने अनुयायियों द्वारा बनवाये गये अथवा बनवाये जाने वाले चैत्यों को विधि चैत्य की संज्ञा दी।' खरतरगच्छ के विरोधियों द्वारा उत्पन्न की गई इस प्रकार की स्थिति के कारण ही जिनवल्लभसूरि, उनके शिष्य जिनदत्तसूरि द्वारा पाटण छोड़ने के पश्चात् जिनदत्तसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि और उनके शिष्य जिनपतिसूरि अपने जीवन काल में कभी पाटण में नहीं आये। इस प्रकार का साम्प्रदायिक वैमनस्य, पारस्परिक विरोध उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम तीन दशकों में तो यह वैमनस्य चरम सीमा तक पहुंच गया। अपने समय के महान् जिनशासन प्रभावक तपागच्छीय आचार्यश्री हीरविजयसूरि का प्रश्रय प्राप्त कर उपाध्याय धर्मसागर ने अपने गच्छ तपागच्छ को छोड़ शेष सभी गच्छों का खंडन करते हुए एक विशालकाय "कुपथ कौशिक सहस्र किरण" "श्री प्रवचन परीक्षा" नामक ग्रन्थ और अन्य छोटे मोटे अनेक ग्रन्थों की रचनाएं कीं। इन ग्रन्थों में मुख्यतः प्रवचन परीक्षा में उपाध्याय धर्मसागर ने खरतरगच्छ की बड़ी ही सर्वाधिक कटु और तीखी आलोचना की है। उपाध्याय धर्मसागर ने वर्द्धमानसूरि द्वारा प्रारम्भ की गई परम्परा के प्राचार्य जिनवल्लभसूरि को उनके जीवन के अन्तकाल तक चैत्यवासी परम्परा का ही श्रमण बताया अत्रोत्सूत्र जनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा । साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जाति ज्ञाति कदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमित्याज्ञात्रेयमनिश्चिते विधिकृते श्री जैन चैत्यालये ।। (चित्रकूट गढ़ की तलहटी में जिनवल्लभसूरि द्वारा बनवाये गये विधि चैत्य के स्तम्भ पर उत्कीर्ण एवं उटंकित प्रशस्ति का श्लोक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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