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________________ ४८२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ पड़ा और वे जीवन भर पाटण राज्य की सीमाओं से बाहर चित्तौड़ आदि स्थानों में विधि चैत्यों की स्थापना के माध्यम से अपनी परम्परा का प्रचार-प्रसार करने में संलग्न रहे। जिनवल्लभसूरि के पाटण से चले जाने के अनन्तर जिनदत्तसूरि ने अपने अनुयायियो की अपने विधि चैत्यों पर पुनः अधिकार करने का इस प्रकार का उपदेश दिया कि जिसकी झलक ऊपर लिखित पद्यों में सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। जिनदत्तसूरि के इस प्रकार के उपदेशों को उत्तेजक और शान्ति भंग करने वाले बताकर विरोधियों ने, जिनमें सुनिश्चित रूप से चैत्यवासी और सुविहित परम्परा के अन्यान्य कतिपय गच्छ भी सम्मिलित थे, राजाज्ञा द्वारा जिनदत्तसूरि को पाटन राज्य से निष्कासित करवा दिया। यही कारण था कि जिनवल्लभसूरि के समान उनके पट्टधर आचार्य जिनदत्तसूरि भी अपने जीवनकाल में पुनः कभी पाटन में लौटकर नहीं आये । जैन वांङ्मय' इस प्रकार की साक्षी उपलब्ध होती है कि चालुक्यराज द्वितीय भीमदेव (विक्रम सम्वत् १२३६ से १२६८) के शासनकाल तक पौर्णमिक, खरतरगच्छ आदि कतिपय गच्छों के आचार्यों, साधुओं आदि का पाटन में आना-जाना बन्द था। जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरि के जीवन-काल में विधिचैत्य और प्रविधि चैत्य का विवाद देश के विभिन्न भागों में फैला। जिस प्रकार आयतन अनायतन का विवाद चैत्यवासियों के ह्रासोन्मुख काल में जैन धर्मानुयायियों के लिये प्रमुख प्रश्न बना हुआ था, उसी प्रकार विधि अविधि चैत्य का विवाद जिनवल्लभसूरि के समय में जैन संघ में उत्पन्न हुआ। इस विवाद ने जिनदत्तसूरि के आचार्यकाल में बड़ा उग्र रूप धारण किया। इस प्रश्न को लेकर विभिन्न गच्छों के आचार्यों में अनेक बार शास्त्रार्थ भी हुए। विधि चैत्य के सम्बन्ध में यदि विचार किया जाय तो यह तथ्य प्रकाश में आएगा कि विधि चैत्य भी वस्तुतः क्रियोद्धार का ही एक अंग था । चैत्यवासियों के अभ्युदय उत्कर्ष एवं अपकर्ष काल में चैत्यवासी साधु चैत्यों में ही नियत निवास करते थे । वे लोग उन चैत्यों में अशन, पान, शयन, स्नान, नर-नारियों के सामूहिक कीर्तन, रात्रि जागरण व नर्तकियों के नृत्य-संगीत एवं ताम्बूल चर्वणं आदि सभी कार्य-कलाप करते रहते थे । सुविहित परम्परा के अभ्युदय के अनन्तर चैत्यवासियों की इन सब प्रवृत्तियों का प्रारम्भ में घोर विरोध किया गया और सुविहित परम्परा के अनुयायियों द्वारा निर्मापित चैत्यगृहों में साधु साध्वियों का नियत निवास, रात्रि में स्त्रियों का प्रवेश, ताम्बूल चर्वण आदि अनेक कार्य निषिद्ध थे। कालान्तर में शनैः शनैः सुविहित परम्परा के अनुयायियों द्वारा बनवाये गये मन्दिरों में भी रात्रि में स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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