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________________ ४७४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आगमों के समकक्ष मानने से स्पष्ट इन्कार किया गया था। इस प्रकार के उल्लेख का उस समय के सुविहित परम्परा के उन विभिन्न गच्छों या अनुयायियों पर, जिनमें कि केवल आगमों के स्थान पर सम्पूर्ण पंचांगी को प्रामाणिक मानने की मान्यता दृढ़ होती चली जा रही थी, कितना घातक प्रभाव होता, इसका प्रत्येक निष्पक्ष विज्ञ सहज ही अनुमान लगा सकता है। उपर्युल्लिखित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ दृष्टि से विचार करने पर यही प्रतिफलित होता है कि जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को दुर्लभराज की राज सभा में शास्त्रार्थ में पराजित कर अणहिल्लपुर पट्टण में शताब्दियों से प्रतिबन्धित वसतिवास की परम्परा को प्रतिष्ठापित किया। जिनेश्वरसूरि की शास्त्रार्थ में जो विजय हुई वह केवल एक इसी मान्यता के बल पर हुई कि वे केवल गणधरों और चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित आगमों को ही प्रामाणिक मानते थे। आगमों के अतिरिक्त भाष्यों, टीकाओं, चूणियों, वृत्तियों आदि पंचांगी के अंगों को प्रामाणिक नहीं मानते थे। इसके अतिरिक्त उपर्युल्लिखित तथ्यों से यह भी प्रकट होता है कि वर्द्धमानसूरि की परम्परा, जो कालान्तर में खरतरगच्छ के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुई, भी प्रारम्भ में केवल आगमों को ही प्रामाणिक मानती थी । ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया, चैत्यवासियों के संसर्ग अथवा प्रभाव से सुविहित कहे जाने वाले गच्छों में नियुक्तियों, भाष्यों, वृत्तियों और चूणियों को भी आगमों के समान ही प्रामाणिक मानने की प्रवृत्ति घर करती चली गई। शनैः शनैः उसका प्रभाव समग्र धर्म क्रान्ति के रूप में क्रियोद्धार करने वाले वर्द्धमानसूरि की परम्परा पर भी बढ़ता गया और इस परम्परा के उत्तरकालवर्ती प्राचार्यों ने भी चैत्यवासियों के समान अागम विरोधी प्राचार अंगीकार कर लिया । वे भी इस पागम विरोधी विचारधारा में बह गये। अन्य गच्छों के आचार्यों की भांति खरतरगच्छ के आचार्यों में भी आगमों से विपरीत मान्यताएं बद्धमूल होती गईं और उनका प्राचार-विचार व्यवहार भी किस प्रकार चैत्यवासियों के ही अनुरूप होता गया, इसके अनेकों उदाहरण समयसमय के जैन वांग्मय में उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के रूप में खरतरगच्छ के सत्तरवें पट्टधर आचार्य श्री जिन महेन्द्रसूरि के जीवन से सम्बन्धित एक उद्धरण लब्ध प्रतिष्ठ जैन इतिहासज्ञ पं श्रीकल्याण विजयजी म० के ग्रन्थ 'पट्टावली पराग संग्रह' में से यहां अविकल रूपेण प्रस्तुत किया जा रहा है : (७०) श्री जिनमहेन्द्रसूरि "विक्रम सम्वत् १८६७ में जन्म, १८८५ में दीक्षा, सम्वत् १८६२ में जोधपुर महाराजा मानसिंहजी के राज्यकाल में प्राचार्य पद । श्री पाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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