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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] खरतरगच्छ
[ ४७३ परिहरिय गुरुकमागय वर वत्ताए वि गुज्जरत्ताए। वसहि निवासो जेहिं फुडीको गुज्जरत्ताए ॥६८।।
अर्थात् सरस्वती नदी के तटवर्ती अणहिल्लपुर पट्टण नगर की महाराज, दुर्लभराज की राजसभा में जिनेश्वरसूरि ने विचारविहीन नामधारी चैत्यवासी आचार्यों के साथ विचार अर्थात् वाद-विवाद करके वहां वसतिवास की स्थापना की, जहां कि अनेक पीढ़ियों से वसतिवासियों का प्रवेश तक निषिद्ध था ।
गणधर सार्द्ध शतक की रचना, जिनदत्तसूरि ने विक्रम सम्वत् ११६९ में आचार्य पद पर आसीन होने के समय से लेकर विक्रम सम्वत् १२११ में स्वर्गस्थ होने के बीच के किसी समय में की।
इस प्रकार प्राचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा प्रभावक चरित्र की रचना से लगभग १६४ वर्ष पूर्ववर्ती वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्राचार्य के समकालीन वयोवृद्ध जिनदत्त ने गणधर सार्द्ध शतक की रचना करते समय चैत्यवासियों के साथ हुए जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ वाद-विवाद अथवा विचार का उल्लेख किया है।
प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रभावक चरित्र की रचना करते समय अपने से २६ वर्ष पूर्व के जिनपालोपाध्याय द्वारा और अपने से १६४ वर्ष पूर्व जिनदत्तसूरि द्वारा किये गये उक्त शास्त्रार्थ विषयक उल्लेख की उपेक्षा किस कारण से की यह भी तटस्थ दृष्टि से विचार करने का विषय है ।
- जिनदत्तसूरि के गणधर सार्द्ध शतक और जिनपालोपाध्याय की गुर्वावली जैसे लोक प्रसिद्ध ग्रन्थों को प्रभाचन्द्रसूरि ने देखा ही न हो, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता । एक-एक स्थविर एक-एक बहुश्रुत आचार्य से मिलकर और अनेक प्राचीन ग्रन्थों का पालोडन कर प्रभावक चरित्र जैसी महत्त्वपूर्ण कृति की रचना करने वाले प्रभाचन्द्रसूरि ने अपने से पूर्ववर्ती इन दोनों प्राचार्यों की कृतियों को सुनिश्चित रूपेण देखा, पढ़ा और उन पर विचार-मन्थन भी किया होगा। इस प्रकार की स्थिति में अपने से पूर्ववर्ती लेखकों के उल्लेखों की उपेक्षा करना एवं नवीन ढंग से ही घटनाचक्र का निरूपण करना वस्तुतः विचारणीय है। ऐसा करने के पीछे एक ही कारण समझ में आ सकता है और वह यह है कि गणधरों एवं चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित आगमों को ही प्रामाणिक मानने वाले जिनेश्वरसूरि की परम्परा से भिन्न गच्छों के प्राचार्यों एवं साधु-साध्वियों में उस समय तक चैत्यवासियों के संसर्ग अथवा प्रभाव से निगम, नियुक्ति, भाष्य, वृत्ति और चूणि रूप पंचांगी को प्रामाणिक मानने की धारणा बलवती हो गई हो । ऐसी स्थिति में यदि आचार्य प्रभाचन्द्र चैत्यवासियों के साथ हुए जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ का प्रभावक चरित्र में उल्लेख करते तो उन्हें दुर्लभराज के समक्ष जिनेश्वरसूरि द्वारा कही गई उस महत्त्वपूर्ण बात का उल्लेख भी अवश्य करना पड़ता, जिसमें आगमों को ही केवल प्रामाणिक मानने की मान्यता को प्रतिपादित किया गया था और पंचांगी को किसी भी दशा में
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