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________________ ४७२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी इस कृति की प्रशस्ति के "दुष्प्रापत्वादमीषां विशकलिततयैकत्र चित्रावदातं" इस पद में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि पूर्वाचार्यों के चरित्र प्रायः दुष्प्राप्य हैं । जो थोड़े बहुत मिलते भी हैं तो वे भी टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरे हुए बड़े परिश्रम से खोजपूर्ण प्रयास के बाद मिलते हैं, जिन्हें संकलित करने में भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । अनेक श्रुतधरों के पास जाकर उनसे उन पूर्वाचार्यों के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में पूछना एवं श्रवण करना पड़ता है। तदनन्तर प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने इस लेखन के "अत्र शूणं हि यत्किचित्, सम्प्रदायविभेदतः । मयि प्रसादमाधाय, तच्छोधयत कोविदाः ॥१८।। माध्यम से स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जिन पूर्वाचार्यों के इतिवृत्त प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखे गये हैं, उनमें से अनेक प्राचार्य विभिन्न सम्प्रदायों के थे । इस साम्प्रदायिक विभेद के कारण या परिणामस्वरूप अन्यान्य सभी सम्प्रदायों के सम्बन्ध में अनिवार्यरूपेण अपेक्षित जानकारी न होने के कारण मेरे लेखन में कतिपय त्रुटियां अवश्य रही होंगी। अतः विज्ञ विद्वान् मेरे ऊपर अनुग्रह कर उन त्रुटियों का समुचित शोधन-मार्जन कर लें। इस प्रकार की स्थिति में कोई भी विज्ञ यह मानने के लिये कदापि उद्यत नहीं होगा कि जिनेश्वरसूरि द्वारा अणहिल्लपुर पट्टण में प्रचलित किये गये वसतिवास के सम्बन्ध में जो कुछ प्रभावक चरित्रकार ने लिखा है, वही अन्तिम रूप से प्रामाणिक है । प्रभावक चरित्रकार ने चैत्यवासी आचार्यों का जिनेश्वरसूरि के साथ शास्त्रार्थ न होने का और महाराजा दुर्लभराज द्वारा ही अपने व्यक्तिगत प्रभाव से वसतिवासी साधुओं को प्रणहिल्लपुर पट्टण में निवास करने हेतु चैत्यवासियों को समुद्यत कर लेने का जो उल्लेख किया है, इसका खोजने पर भी कोई आधार जैन वांङ्मयों कहीं उपलब्ध नहीं होता। इसके विपरीत प्रभावक चरित्रकार से २६ वर्ष पूर्व गुर्वावली (खरतरगच्छ) का आलेखन करने वाले जिन पालोपाध्याय के अतिरिक्त जिनदत्तसूरि ने गणधर सार्द्ध शतक में स्पष्ट उल्लेख किया है कि दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी प्राचार्यों के साथ जिनेश्वरसूरि ने विचार विमर्श अथवा शास्त्रार्थ कर गुजरात प्रदेश में वसतिवास की स्थापना की। गणधर सार्द्ध शतक का वह उल्लेख इस प्रकार है : "प्रणहिल्लवाडए नाडइव्व दंसियसुपत्त संदोहे । पउरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ।।६।। सढियदुल्लहराए सरसइ अंकोवसोहिए सुहए। मज्झे रायसहं पविसिऊण लोयागमाणुमयं ॥६६॥ नामायरिएहिं समं करिय वियारं वियाररहिएहिं । वसइहिं निवासो साहूणं ठविप्रो ठावियो अप्पा ।।६७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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