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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
[ ४७५ लिप्तपुर में तपागच्छीय उपाश्रय के आगे होकर वाजिंत्र बजाते हुए जिनमन्दिर में दर्शनार्थ गये।
श्रीसंघाधिप ने सपरिवार गुरु को अपने निवास स्थान पर बुलाकर स्वर्णमुद्राओं से नवांगपूजा की और दस हजार रुपया और पालकी संघ के समक्ष भेंट की। वाचक, पाठक साधुवर्ग को सुवर्ण रुप्य मुद्राएं तथा महावस्त्रादि ज्ञानोपकरण भेंट किये ।
श्री गुरु ने भी ८४ गच्छीय समस्त प्राचार्य तथा सहस्र साधुओं को महावस्त्र और प्रत्येक को दो-दो रुप्य मुद्राएं अर्पण की।........"
"फाल्गुन शुदि दूज दिने सर्वतपागच्छीयादि प्राचार्य साधूनुपत्यकायां संरोध्य श्री जिनमहेन्द्रसूरयः सर्व संघपतिभिः सार्द्ध श्री मूलनायक जिनगृहाग्रतो गत्वा विधिना सर्वेषां कंठेषु संघमाला स्थापिता। अन्य गच्छीयाचार्याणां कौशिकानामिव मनोभिलाषं मनस्यैव स्थितं । खरतर गच्छेश्वर सूर्योदय-तेज-प्रकरत्वात्तदनुत्तीर्य गीतगमतुर्यवाद्यमानगजाश्वशिविकेन्द्रध्वजादि महा पादलिप्तपुरे जिनगृहे. दर्शनं विधाय तपागच्छीयाचार्य स्थितोपाश्रयाग्रतो भूत्वा संघावासे अयासिषुः भूयोऽपि तत्रस्थ चतुरशीतिगच्छीय द्वादशशतसाधुवर्गेभ्यो महावस्त्र रुप्यमुद्रायुग्मं प्रत्येकं प्रदत्तानि, तदवसरे श्रीमद् पूज्यैर्बहुतर द्रव्यव्ययं कृतं, तत्सम्बन्धः पूर्ववत् पुनः श्रीमदादिजिनकोशकुचिकायुग्मं श्री खरतरगण श्राद्धश्तया श्रद्धालुभ्यःसकाशात् गृहीतं, कुचिकायुग्मं तत्पार्वे रक्षितं ।"
पट्टावली का ऊपर जो पाठ दिया है, इससे अनेक गुप्त बातें ध्वनित होती हैं । फाल्गुन सुदि २ के दिन जिनमहेन्द्रसूरिजी पादलिप्तपुर में उपस्थित संघपतियों को माला पहनाने वाले थे, परन्तु दादा की टूक में मूल नायकजी के सामने माला पहिनाने के विषय में तपागच्छीय तथा अन्य गच्छीय सभी प्राचार्य विरुद्ध थे, जिसके परिणामस्वरूप जिनमहेन्द्रसूरिजी ने राजकीय बल द्वारा अन्य सभी गच्छों के प्राचार्यों तथा साधुओं को ऊपर जाने से रुकवा दिया था, फिर आपने निर्भयता से दादा के सामने संघपतियों को मालाएं पहिनाने का पुरुषार्थ किया था। पट्टावली के कथनानुसार यह घटना खरतरगच्छ के सूर्योदय के तेज का प्रकाश था, जिसके सामने अन्यगच्छीय आचार्य रूप उल्लुओं के नेत्र चौंधिया गये थे। ऊपर से उतर कर नगर के मन्दिर में दर्शनार्थ जाने के प्रसंग में तपागच्छ के उपाश्रय के सामने होकर गीतवादित्रों के साथ जाने का उल्लेख किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि विशिष्ट प्रसंगों के सिवाय तपागच्छ के उपाश्रय के आगे होकर गीतवादित्रों के साथ निकलना खतरगच्छीय प्राचार्यों के लिये बन्द होगा। अन्यथा यहां पर उक्त उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
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