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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
[ ४६६ प्रभावक चरित्र के उल्लेखानुसार उसी समय विक्रम सम्वत् १०८० से गुजरात के पट्टनगर अणहिल्लपुर पट्टण में वसतिवास की परम्परा प्रचलित हो गई।
इस प्रकार प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने चैत्यवासियों के साथ हुए श्री जिनेश्वरसूरि के धार्मिक संघर्ष की ऐतिहासिक घटना के एक को छोड़ सभी प्रमुख तथ्यों को ऐतिहासिक तथ्यों के रूप में स्वीकार किया है । प्रभावक चरित्र के एतद्विषयक विवरण से खरतरगच्छ की पट्टावलियों में उल्लिखित निम्न तथ्यों की पुष्टि होती है :
१. विक्रम सम्वत् ८०२ में पाटण नगर के निर्माण के साथ ही चैत्यवासी प्राचार्य के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए वनराज चावड़ा ने राजाज्ञा प्रसारित कर चैत्यवासी परम्परा के श्रमण-श्रमणियों और उनके द्वारा सम्मत साधु-साध्वियों को छोड़कर शेष सभी प्रकार की जैनधर्म की परम्पराओं के साधु-साध्वियों के पाटण नगर अथवा पाटण राज्य में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
२. वह निषेधाज्ञा विक्रम सम्वत् ८०२ से विक्रम सम्वत् १०७६ तक प्रभावी रही और १०८० में उसे येन केन प्रकारेण निष्प्रभावी बना दिया गया।
३. जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के पाटण पहुंचने पर चैत्यवासियों ने उनके पाटण-प्रवेश का विरोध किया और भटों को भेजकर उन्हें तत्काल पाटण से बाहर चले जाने को कहा ।
४. चैत्यवासियों द्वारा भेजे गये भट्टपुत्रों के कथन के उपरान्त भी जब जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के पाटण से बाहर न जाने और राज पुरोहित के "इन महात्माओं के पाटण से चले जाने अथवा पाटण में ही रहने के सम्बन्ध में राजाधिराज द्वारा राजसभा में ही निर्णय किया जायगा", यह कहने पर चैत्यवासी प्राचार्य महाराज दुर्लभराज की राजसभा में पहुंचे और उन्होंने राजा से प्रार्थना की कि २७८ वर्ष से चली आ रही राजमर्यादा का सम्मान रखते हुए वसतिवासी साधुओं को पाटण में न रहने दिया जाय।
१. ततः प्रभृति संजज्ञे. वसतीनां परम्परा । महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः ।।८१।।
प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १६३
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