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________________ ४६८ 1 "राजा प्राह समाचारं प्राग्भूपानां वयं दृढम् । पालयामः गुरणवतां पूजां तुल्लंघयेम न ॥ ७८ ॥ भवादृशां सदाचारनिष्ठानां प्रशिषः नृपाः । एधन्ते युष्मदीयं तद्, राज्यं नात्रास्ति संशयः ।। ७६ ।। उपरोधेन नो यूयममीषां वसनं पुरे । अनुमन्यध्वमेवं च श्रुत्वा तेऽत्र तदा दधुः ||८०|| [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ अर्थात् राजा दुर्लभराज ने चैत्यवासी प्राचार्यों से कहा :- " हम अपने से पूर्ववर्त्ती राजाओं द्वारा स्थापित की गई, मर्यादाओं व्यवस्थाओं का दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं । किन्तु इसके साथ ही साथ गुणी महापुरुषों की पूजा के अपने मानवीय प्राथमिक कर्त्तव्य से विमुख हो अपने उस महत्वपूर्ण प्रमुख कर्त्तव्य की अवहेलना अथवा उल्लंघन भी नहीं कर सकते । राजन्यवर्ग तो सदा से आप जैसे सदाचारनिष्ठ महापुरुषों से प्राशीर्वाद प्राप्त करते रहने का अभिलाषी रहा है । अतः निस्संदिग्ध रूप से यह राज्य प्रापका निज का ही है। हम पर अनुग्रह कर आप कृपया बाहर से प्राये हुए इन गुणी महापुरुषों को इस प्ररण हिल्लपुर पट्टण नगर में रहने की अनुमति प्रदान कर दीजिये ।" "महाराजा दुर्लभराज द्वारा किये गये विनम्र निवेदन को सुनकर चैत्यवासी आचार्यों ने जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि को तत्काल अणहिल्लपुर पट्टण में रहने की स्वीकृति प्रदान कर दी ।" " चैत्यवासियों से इस प्रकार की अनुमति प्राप्त हो जाने के पश्चात् राज पुरोहित सोमेश्वर ने राजाधिराज दुर्लभराज से निवेदन किया- " इन महापुरुषों के रहने के लिये यहां नगर में कोई स्थान नहीं है । अतः कृपा कर आप इस प्रकार के महात्मानों के लिये कोई स्थान प्रदान कर लाभान्वित हों । महाराजा दुर्लभराज ने कहा - "यह तो परमावश्यक है ।" उसी समय शैव धर्म गुरु ज्ञानदेव का राजसभा में आगमन हुआ । दुर्लभराज ने अभ्युत्थान-वन्दन-अर्चन के अनन्तर शैवाचार्य को उच्च आसन पर बिठा कर शैवाचार्य से निवेदन किया : "भगवन् । ये जैन महर्षि बाहर से यहां पधारे हैं । अतः जैन महर्षियों के रहने के लिये कोई स्थान ( उपाश्रय) प्रदान कीजिये ।” " शैव धर्मगुरु ने तत्काल जैन उपाश्रय हेतु सभी दृष्टियों से सुखद भूखंड राज पुरोहित को दिया । राज पुरोहित सोमेश्वर ने स्वल्प समय में उस स्थान पर एक भव्य उपाश्रय का निर्माण सम्पन्न करवा दिया । " १. प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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