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________________ ४७० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ ये चारों प्रमुख तथ्य जिस रूप में खरतर गच्छीया पट्टावलियों एवं गुर्वावलियों में उल्लिखित हैं, अधिकांशतः उसी रूप में प्रभावक चरित्र में भी उल्लिखित हैं । केवल अन्तिम निर्णायक तथ्य के सम्बन्ध में प्रभावक चरित्रकार और खरतर गच्छीया गुर्वावली के उल्लेख एक दूसरे से भिन्न प्रकार के हैं। गूर्वावलीकार के अभिमतानुसार चैत्यवासियों ने वसतिवासी प्राचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्यों को वाद में पराजित कर पाटण से बाहर निकलवाने का निश्चय किया । शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव भी चैत्यवासियों की ओर से रखा गया । अन्ततोगत्वा शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि ने पागम के आधार पर नियतनिवासवैत्यवास को शास्त्रविरुद्ध और वसतिवास को शास्त्रसम्मत सिद्ध कर चैत्यवासियों को पराजित किया । उस शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि ने जन-जन के मन मस्तिष्क और हृदय पर यथार्थता की, तथ्यातथ्य की छाप अंकित कर देने वाली अकाट्य युक्तियों से अपना पक्ष रखा तो चैत्यवासी परम्परा की नींव हिल उठी। जिनेश्वरसूरि ने अनूठी सूझ बूझ और दूरदर्शिता से ओत प्रोत एक प्रश्न चालुक्येश्वर दुर्लभराज से किया : "राजन् ! आप जिस राजनीति के बल पर न्याय नीतिपूर्ण सुशासित ढंग से अपने राज्य का संचालन करते हैं, वह राजनीति आप स्वयं द्वारा बनाई हुई है अथवा आपके पूर्वजों द्वारा निर्धारित-निर्मित ?" जब दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि के प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि वे अपने पूर्व पुरुषों राजर्षियों महर्षियों द्वारा निर्धारित निर्मित न्यायपूर्ण राजनीति से ही शासन का संचालन करते हैं, तो जिनेश्वरसूरि ने अनादि सिद्ध अवितथ ऐतिहासिक तथ्य सभ्यों के माध्यम से संसार के समक्ष रखते हुए कहा :-"महाराज! जिस प्रकार आप अपने पूर्वजों द्वारा निर्धारित न्यायपूर्ण राजनीति के अनुसार शासन चलाते हैं, ठीक उसी प्रकार हम लोग भी तीर्थंकर भगवान महावीर के उपदेशों के आधार पर गणधरों द्वारा रचित द्वादशांगी तथा चौदह पूर्वधरों द्वारा द्वादशांगी से नियंढ़ आगमों को ही प्रामाणिक मानते हैं, उन आगमों से भिन्न अन्य किसी भी ग्रन्थ विशेष को नहीं। जिनेश्वरसूरि का यह कथन सभी दृष्टियों से कसौटी पर खरा उतरता है क्योंकि वस्तुत: जैनधर्म सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग तीर्थंकर पद धारक जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित प्रदर्शित अनादि शाश्वत धर्म है, न कि किसी प्राचार्य विशेष अथवा छद्मस्थ द्वारा प्ररूपित अथवा प्रदर्शित धर्म । इस प्रकार की स्थिति में प्रत्येक जैन का प्राथमिक कर्तव्य हो जाता है कि वह सब प्रकार के अभिनिवेशों एवं पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग तीर्थेश्वर द्वारा उपदिष्ट गणधरों द्वारा अथवा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित आगमों को ही सर्वोपरि एवं परम प्रामाणिक माने । प्रत्येक जैन वस्तुतः जिनेश्वर का ही अनुयायी है। किसी प्राचार्य विशेष का नहीं। वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर की वाणी के समक्ष किसी छद्मस्थ प्राचार्य की वाणी का कोई महत्व नहीं । कोई मूल्य नहीं। अगर वह जिनेश्वर देव की वाणी पर आधारित न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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