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________________ ४५६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४ साम्प्रतकालीन सक्रिय सभी प्रमुख गच्छों में खरतरगच्छ के सर्वाधिक प्राचीन होने के कारण क्या हैं और खरतरगच्छ ने जिनशासन की किस रूप में उल्लेखनीय एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण सेवा की इन दो तथ्यों अथवा पक्षों पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने का यहां प्रयास किया जा रहा है। · यशस्वी खरतरगच्छ के विरुद्ध विष वमन करने वाले उल्लेखों में भले ही इसे "पौष्ट्रिक गच्छ'", "चामुंडिक गच्छर" और "खरतर गच्छ” अतिशयेन खर (खरतर) इति व्युत्पत्या महान् गर्दभः उग्रतरो वा भण्यते आदि अशोभनीय उपमाओं अथवा संज्ञाओं से अभिहित करते हुए कहा हो कि द्रव्य साधु जिनदत्त (दादा जिनदत्तसूरि) से ही विक्रम सम्वत् १२०४ में खरतरगच्छ प्रचलित हुआ और पौष्टिक गच्छ, चामुडिक गच्छ एवं खरतरगच्छ ये तीनों नाम जिनदत्तसूरि के समय से ही प्रचलित हुए, किन्तु पुष्ट प्रमाणों से परिपुष्ट वास्तविकता यह है कि विक्रम सम्वत् १०८० में जब पाटणपति चालुक्यराज दुर्लभसेन की राज्य सभा में चैत्यवासियों के साथ वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ हुअा था, उस समय जिनेश्वरसूरि की आगमानुरूप युक्तियों और आगम सम्मत विचारों को सुनकर एवं उनके द्वारा चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिये जाने से प्रभावित होकर चालुक्यराज दुर्लभसेन ने वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा था "ये खरे हैं" तभी से यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते ।। श्रीमद्भागवद्गीता की इस सूक्ति के अनुसार राजा का अनुकरण करते हुए लोगों ने भी वर्द्धमानसूरि के शिष्य-परिवार साधु, साध्वी समूह के लिये 'ये खरे हैं' 'ये खरे हैं' कहना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार इस साधु-साध्वी समुदाय को लोग प्रारम्भ में खरा शुद्ध, सच्चा, कसौटी पर खरे उतरे सोने के समान खरा विशेषण के साथ सम्बोधित करने लग गये थे। यह कोई विरुद अथवा उपाधिपरक शब्द नहीं अपितु श्लाघात्मक शब्द था । इसी कारण बुद्धिसागरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, महावीर चरियं के रचनाकार गुणचन्द्र गरिण आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में वर्द्धमानसूरि के समय में प्रादुर्भूत अथवा प्रचलित साधु साध्वी संगठन (समूह) के लिये कहीं खरा अथवा खरतर विशेषण का प्रयोग नहीं किया है। १. प्रवचन परीक्षा, भाग १, पृष्ठ २६८, २. (वही) पृष्ठ २६७ ३. (वही) पृष्ठ २८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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