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. सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
खरतरगच्छ
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कालान्तर में चालुक्यराज दुर्लभराज द्वारा पूरी तरह परीक्षण के अनन्तर वर्द्धमानसूरि के पट्टधर शिष्य जिनेश्वरसूरि एवं उनके साधु समूह के लिये प्रशंसा के रूप में प्रयुक्त किया गया "खरा अति खरा" यह शब्द वर्द्धमानसूरि द्वारा प्रारम्भ किये गये गच्छ के लिये “खरतरगच्छ' के रूप में लोक में रूढ हो गया।
वर्द्धमानसूरि द्वारा प्रकट किये गये सुविहित श्रमण परम्परा के गच्छ के लिये उत्तरकालवर्ती जिन-जिन प्रमुख ग्रन्थकारों अथवा लेखकों द्वारा जो खरा अति खरा अथवा खरतर विशेषण अथवा विरुद का प्रयोग किया गया है, उसका विवरण इतिहास में विशिष्ट अभिरुचि रखने वाले पाठकों के लाभार्थ यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
१. वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि के जिनेश्वरसूरि प्रबन्ध में एतद्विषयक उल्लेख इस प्रकार है :
"तो जिणेसरसूरि, गच्छ नायगो विहरमाणो वसुहं अणहिल्लपुर पट्टणे गो। तत्थचुलसीगच्छवासिगो भट्टारगा दवलिंगिणो मढवइणो चेइयवासिगो पासइ । पासित्ता जिण सासणुन्नइकए सिरि दुल्लहराय सभाए वायं कयं । दस सय चउवीसे (१०८०) वच्छरे ते पायरिया मच्छरिणो हारिया । जिणेसरसूरिणा जियं । रन्ना तुढेण खरतर इति विरुदं दिन्न । तो परं खरतर गच्छो जाओ।"१
२. आचारांगदीपिका की प्रशस्ति में खरतरगच्छ के मूल प्राचार्य वर्द्धमानसूरि के गुरु अरण्यचारी श्री उद्योतनसूरि का भी खरतरगच्छ के पूर्वाचार्य के रूप में स्मरण करते हुए लिखा है :
गच्छः खरतरस्तेषु, समस्ति स्वस्तिभाजनम् । यत्राभूवन्गुणजुषो, गुरवो गतकल्मषाः ॥१॥ श्रीमानुद्योतनः सूरिर्वर्द्धमानो जिनेश्वरः । जिनचन्द्रोऽभयदेवो, नवांगवृत्तिकारकः ।।२॥
३. उपदेश सप्ततिका में श्री रत्नशेखरसूरि के आचार्यकाल में सोमसुन्दरसूरि के प्रशिष्य तथा उपाध्याय चारित्र रत्न के शिष्य पं० सोमधर्म गणि ने खरतरगच्छ की प्रशंसा करते हुए लिखा है :
पुरा श्री पत्तने राज्यं, कुर्वाणे भीम भूपतौ । अभूवन भूतलख्याताः, श्री जिनेश्वर सूरयः ।। श्रीमदभयदेवाख्यास्तेषां पट्टे दिदीपिरे । येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो, गच्छः खरतराभिधः ।।
१. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ६०
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