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खरतरगच्छ
[वेदाभ्रारुण (१२०४) काल औष्ट्रिक मतो............]
(वीर निर्वाण सम्वत् १५५० एवं १६७४) जैन संघ में पुरातनकाल से लेकर वर्तमान युग तक समय-समय पर कितने गणों, गच्छों, सम्प्रदायों, छोटे-बड़े संघों, ग्राम्नायों, परम्पराओं आदि के रूप में पृथक्-पृथक् इकाइयों अथवा विभेदों का प्रादुर्भाव हुआ, उन सबका परिचय देने की बात तो दूर, उनकी गणना करना भी वस्तुतः एक अति दुष्कर कार्य है । इस प्रकार की विषम स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान काल में जितने गच्छ गतिशील हैं, केवल उनका ही यथाशक्य विशुद्ध रूप से परिचय देकर हमें सन्तोष करना होगा।
श्वेताम्बर परम्परा में आज जितने गच्छ विद्यमान हैं, उनमें सबसे प्राचीन गच्छ कौन-सा है तथा किस गच्छ ने जिनशासन के अभ्युदय-उत्थान में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, यह वस्तुतः एक गहन शोध का विषय है। इस विषय में नितान्त निष्पक्ष दृष्टि से उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह तथ्य प्रकाश में आता है कि वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा के जितने गच्छ गतिशील हैं, उनमें वर्द्धमानसूरि एवं उनके यशस्वी शिष्य जिनेश्वरसूरि के अद्भुत साहस के परिणामस्वरूप विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुअा और कालान्तर में 'खरतरगच्छ' के नाम से विख्यात हुअा 'खरा' गच्छ सर्वाधिक प्राचीन गच्छ है । सर्वाधिक प्राचीन होने के साथ-साथ 'खरा गच्छ' ने जिनशासन के अभ्युदय-उत्थान के लिये और बाह्याडम्बरों के घटाटोप से पाच्छन्न जैन धर्म के वास्तविक प्रागमिक स्वरूप को कतिपय अंशों में पुनः प्रकाश में लाने की दिशा में भी ऐसा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक योगदान दिया, जो जैनधर्म के इतिहास में सदा सर्वदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा।
तपागच्छ पट्टावली और उपाध्याय धर्मसागर गणि द्वारा रचित 'प्रवचन परीक्षा' नामक ग्रन्थ में विक्रम सम्वत् १२०४ में खरतरगच्छ की उत्पत्ति के उल्लेख हैं।' किन्तु इन उल्लेखों में साम्प्रदायिक पूर्वाभिनिवेश के पुट के साथ गच्छव्यामोह की गन्ध का सुस्पष्टरूपेण आभास होता है । १. (क) ......"श्री अजितदेवसूरिः तत्समये विक्रम सम्वत् १२०४ खरतरोत्पत्तिः। पट्टा
वली समुच्चय, भाग १, पृष्ठ ५६ और १५४ । (ख) जिनवल्लभ नामा चित्रकूटे षट्कल्याणक प्ररूपणया प्रविधिसंघं स्थापितवान्,
तत्सम्प्रदायः खरतर व्यवह्रीयते विक्रमात् १२०४ वर्षे जातः । वही पृष्ठ १६६ । (ग) वेदाभ्रारुण (१२०४) काल पौष्ट्रिक भवो..। प्रवचन परीक्षा भाग १, पृष्ठ ३२३ । (घ) विक्रम सम्वत् १२०४ वर्ष पत्तने पौषधशालि वनवासिनोविवादे ..........."देखो
पटटावली समुच्चय पृष्ठ ५६ का टिप्पण ।
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