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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अजयदेव [ ४५१ अथाह जल भरा रहे । तालाब के निर्माण के पश्चात् अर्णोराज ने अपने नाम पर उस विशाल सरोवर का नाम आनासागर रखा, जो आठ-नौ शताब्दियों के व्यतीत हो जाने पर भी अद्यावधि अजमेर में विद्यमान है। अर्णोराज (आना) के पुत्र बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) ने भी आर्यधरा को विदेशी शासन से मुक्त कराने का अभियान प्रारम्भ रखा । दिल्ली में अवस्थित अशोक के शिलालेख शिवालिक स्तम्भ पर उटैंकित बीसलदेव के वि० सं० १२२० के निम्नलिखित पद्यों से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि उसे (बीसलदेव को) अपने इस अभियान में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई । वे पद्य इस प्रकार हैं : आविध्यादाहिमाद्रेविरचित विजयस्तीर्थयात्राप्रसंगा___ दुद्ग्रोवेषु प्रहर्ता नृपतिषु विनमत्कन्धरेषु प्रसन्नः । आर्यावर्त यथार्थ पुनरपि कृतवान्म्लेच्छविच्छेदनाभि र्देवः शाकंभरीन्द्रो जगति विजयते वीसलक्षोणिपालः ।। ब्रूते संप्रति चाहमानतिलकः शाकंभरीभूपति: श्रीमद्विग्रहराज एष विजयी संतानजानात्मनः ।। अर्थात्-जिसने विन्ध्य पर्वत से लेकर हिमालय पर्वतराज पर्यन्त के भू-भाग पर अपनी दिग्विजय यात्रा करते हुए यत्र-तत्र सर्वत्र अपनी विजय वैजयन्ती फहरा कर उद्दण्डों की ग्रीवाओं पर प्रहार और विनम्रभाव से उसके शासन-अनुशासन को स्वीकार करने वालों पर अपने कृपाप्रसाद के रूप में सुख-सम्पादानों की वर्षा कर आर्यधरा को म्लेच्छविहीन बना सम्पूर्ण आर्यावर्त को पुनः यथार्थ रूप में आर्यावर्त अर्थात् आर्यों की भूमि बना दिया, वह शाकंभरीश्वर, पृथ्वीपाल बीसलदेव सदा-सदा जयवन्त रहें। चौहान-कुल-तिलक, शाकंभरी के राजाधिराज, विजय श्री विग्रहराज अपने आत्मीय आर्यों को कह रहे हैं ।..........." . इन विग्रहराज (बीसलदेव चतुर्थ) के राजकवि सोमदेव द्वारा रचित ललित विग्रहराज नाटक में भी उपरिलिखित पद्यों के तथ्यों की पुष्टि की गई है। इस नाटक के कतिपय अंश विशाल शिलाओं पर उटैंकित हैं, जो अजमेर के राजपूताना म्यूजियम में अद्यावधि सुरक्षित एवं उपलब्ध हैं । ललितविग्रहराज नाटक में स्पष्ट उल्लेख है कि बीसलदेव के शासनकाल में मुसलमानों की सेनाएं बब्बेरा-वर्तमान रूपनगर (किशनगढ़ क्षेत्रान्तर्गत) तक पहुंच गई थीं। बीसलदेव ने उन्हें युद्ध में परास्त कर मुसलमानों को भारत से बाहर निकालने के लक्ष्य से अपनी विजयिनी सेनाओं के साथ उत्तर की ओर प्रयाण किया। इस सैनिक अभियान में बीसलदेव ने दिल्ली और हांसी के इलाके अपने राज्य में सम्मिलित किये और आर्यावर्त के एक बड़े भाग से मुसलमानों को निकाल दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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