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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अजयदेव [ ४४७ प्रासाद रणांगण बन गया। अनेक योद्धानों का संहार कर ग्राम्रभट्ट अपनी पान की रक्षा करता हुआ अन्त में अपने हाथों ही मृत्यु का वरण कर परलोकवासी हो गया। गुर्जराधीश अजयदेव की हत्या इस प्रकार अजयदेव के अत्याचारों से गुर्जर राज्य की प्रजा त्रस्त हो उठी लोक में निम्नलिखित नीतिसूक्ति बड़ी लोकप्रिय है :-- त्रिभिर्वर्षे स्त्रिभिर्मासै स्त्रिभिः पक्षस्त्रिभिदिनैः । अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते ।। ३४ ।। अर्थात् इस मर्त्यलोक में प्रत्युत्कट भाव से किये गये महान् पुण्य एवं घोर पाप का फल उस प्राणि को तीन वर्ष, तीन मास, तीन पक्ष अथवा तीन दिनों की अवधि में ही यहां इस धरती पर ही मिल जाता है । ___ इस नीति सूक्ति के अनुरूप अत्याचारी महाराजा अजयदेव के द्वारा किये गये घोर दुष्कृत्यों का फल तीन वर्ष के अन्दर-अन्दर ही उसे मिल गया । अजयदेव के एक वैजलदेव नामक प्रतिहार अथवा अंगरक्षक ने अजयदेव के उदर में छुरा भौंक कर उसका प्राणान्त कर दिया। इस प्रकार अपने तीन वर्ष के अत्याचारी शासनकाल में ही अजयदेव को अपने पापों का फल प्राप्त हो गया। . ___ अपने तीन वर्ष के अत्याचारपूर्ण शासन के समाप्त होते-होते गुर्जराधिपति अजयदेव की हत्या कर दिये जाने के अनन्तर उसके अल्पवयस्क बड़े पुत्र मूलराज (द्वितीय) को अनहिलपुर पत्तन के राजसिंहासन पर आसीन किया गया। अजयदेव की विधवा महारानी राजमाता नायकीदेवी ने विशाल गुर्जर राज्य की संरक्षिका के रूप में शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली । नायकीदेवी गोया के कदम्बवंशी महाराजा परमर्दिन् की पुत्री थी। उसने गुर्जर राज्य की प्रजा को सुशासन देने के साथ-साथ गुर्जर राज्य को एक शक्तिशाली राज्य बनाने के भी प्रयास किये। वि० सं० १२२५ तदनुसार वीर नि० सं० १७०५ तथा ई० ११७८ में गौर के सुलतान मोहम्मद गौरी ने गुजरात पर आक्रमण किया। गुजरात की राजमाता नाइकीदेवी ने अपने बालवय के पुत्र मूलराज (द्वितीय) को अपनी गोद में बिठा गूर्जर राज्य की सेना का नेतृत्व करते हए मोहम्मद गौरी के सम्मुख बढ़कर उस पर भीषण आक्रमण किया। प्राबू पर्वत के अंचल में अवस्थित गाडरारघट्ट नामक घाटे में दोनों सेनानों के बीच तुमुल युद्ध हुआ। राजमाता नायकीदेवी ने रणांगण की अग्रिम पंक्ति पर शत्रुसेना का संहार करते हुए अद्भुत् साहस और शौर्य के साथ गुर्जर राज्य की सेना का कुशलतापूर्वक संचालन किया। प्रकृति ने भी मुक्तहस्त हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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