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________________ ४४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ एक ही क्षण में इस प्रकार विचार कर उन्होंने अपने वाम हस्त से अपनी जिह्वा को पकड़ कर बाहर खींचा और दक्षिण कर के करतल से अपनी ठुड्डी पर पूरी शक्ति से प्रहार किया। उनकी जिह्वा कट गई। वे पृथ्वी पर गिर पड़े और । समाधिपूर्वक उन्होंने स्वर्गारोहण किया। इस मुनि-हत्या के जघन्य कुकृत्य के उपरान्त भी उस नृपाधम अजयदेव की क्षुधा शान्त नहीं हुई और वह महान् गुजरात का निर्माण करने वाले दिवंगत महामात्य उदयन के महादानी, महामेधावी और महान् शौर्यशाली योद्धा पुत्र आम्रभट्ट को यमधाम पहुंचाने के अवसर की टोह में रहने लगा। गुर्जराधीश अजयदेव द्वारा प्राम्रभट्ट की हत्या का उपक्रम गुजरात के महा यशस्वी महामात्य उदयन का पुत्र आम्रभट्ट अपने समय का एक अप्रतिम योद्धा एवं सेनापति था । गुजरात के महादानियों में उसकी सर्वोपरि गणना की जाती थी। परमार्हत महाराजा कुमारपाल का वह विश्वासपात्र सेनानी था। उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त कर गुर्जर राज्य की श्रीवृद्धि एवं सीमावृद्धि की। जिनशासन के प्रति उसकी श्रद्धा प्रगाढ़ एवं स्तुत्य थी। आचार्यश्री हेमचन्द्र एवं कुमारपाल का वह प्रगाढ प्रीतिपात्र था। इसी कारण महाराजा अजयदेव उससे सदा असन्तुष्ट रहता था। एक दिन अजयदेव के चाटुकारों ने अजयदेव से कहा :-"महाराज ! आपके ही अन्न से पलने वाला आम्रभट्ट आपको कभी प्ररणाम नहीं करता।" संयोग की बात थी कि कार्यवशात् सेनापति अाम्रभट्ट राजसभा में महाराजा अजयदेव के समक्ष उपस्थित हुआ । चाटुकार मन्त्रियों ने सेनापत्ति पाम्रभट्ट से कहा :- "सेनापते ! आपके समक्ष गुर्जरेश्वर राजसिंहासन पर विराजमान हैं। इन्हें प्रणाम करो।" स्वाभिमानी आम्रभट्ट ने तत्काल गम्भीर स्वर में उत्तर दिया :-"यह आम्रभट्ट देव बुद्धि से वीतराग भगवान् को, गुरु के रूप में महर्षि हेमचन्द्राचार्य को और स्वामिभाव से महाराज कुमारपाल को ही इस जन्म में नमस्कार करेगा। अन्य किसी को नहीं।" आम्रभट्ट की इस साहसपूर्ण स्पष्टोक्ति को सुनते ही अजयदेव के क्रोध का पारावार न रहा। उसने उत्तेजित स्वर में कहा :-"तो फिर हो जायो युद्ध के लिये तैयार ।" आम्रभट्ट तत्काल विद्युद्वेग से अपने आवास की ओर लौट पड़ा। जिनेश्वरदेव की प्रतिमा को नमन करने के अनन्तर उसने आजीवन अनशन व्रत अंगीकार किया एवं अपने मुट्ठीभर सैनिकों के साथ सन्नद्ध हो राजप्रासाद की ओर लौटा और महाराजा अजयदेव के अंगरक्षकों पर टूट पड़ा। क्षण भर में ही राज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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