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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अजयदेव । ४४५ हो रही थी, जिस प्रकार कि मदोन्मत्त हाथियों के गंडस्थलों पर पाष्णिप्रहारपूर्वक गजमुक्ताओं को सदा विदलित विकीरिणत करते आ रहे शार्दूल की रुग्णावस्था के कारण शृगालों द्वारा यथेच्छ भक्षण किये जाने पर होती है। शृङ्खलाओं से आबद्ध महामात्य कपदि ने अदीन भाव से धैर्य धारण किये अत्याचारी अजयदेव के समक्ष अपने आन्तरिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए घनरव गम्भीर स्वर में कहा :"राजन् ! गरीबों एवं अभ्यर्थियों को मैंने यथेच्छ कोटि-कोटि कांचन मुद्राओं का दान किया है । शास्त्रार्थों में अनेक प्रतिवादियों के मान का मर्दन भी किया है और जिस प्रकार शतरंज के खेल में प्यादियों की उखाड़-पछाड़ की जाती है, ठीक उसी प्रकार मैंने अनेकों राजाओं को सिंहासन-च्युत और अनेकों को सिंहासनासीन भी किया है, अब यदि दुर्भाग्य मेरा अन्त इसी प्रकार करना चाहता है तो उसके लिये भी मैं सहर्ष समुद्यत हूं।" महामात्य कपर्दि की इस गर्वोक्ति को सुनते ही अजयदेव बड़ा क्रुद्ध हुआ और उसने अपने अनुचरों को भ्रूभंग के निक्षेप से इंगित किया। अपने स्वामी का इंगित पाते ही अनुचरों ने महामात्य कपदि को आग पर खौलते हुए तेल के कड़ाह में डाल दिया। इस प्रकार आर्यधरा के एक महान् सेनानी का प्राणान्त कर दिया गया। अजयदेव द्वारा जैनाचार्य श्री रामचन्द्र की हत्या गुर्जराधिपति अजयदेव के सिर पर हत्या आरूढ हो रही थी। महामात्य कपर्दि के प्राणों की लेकर भी उसकी मानव हत्या की भूख शान्त नहीं हुई । उसने आचार्यश्री हेमचन्द्र के पट्टधर, एक सौ प्रबन्धों की रचना करने वाले महान् ग्रन्थकार एवं विद्वान् प्राचार्य रामचन्द्रसूरि को बुलवाया और उन्हें खैर के जगमगाते हुए अंगारों पर प्रतप्त की जा रही ताम्रपट्टिका पर ढकेल कर उनका प्राणान्त करने की घृणित अभिसन्धि करते हुए उनसे कहा :-"मुने ! इस ताम्रपट्टिका पर खड़े हो जाओ।" आचार्यश्री रामचन्द्र ने प्रचण्ड अग्नि के ताप से लाल हुई तांबे की विशाल चद्दर को देखते ही विचार किया : "सूर्य का रथ प्राची से उदीचि तक पृथ्वी की परिक्रमा करने के अनन्तर भी पृथ्वी का स्पर्श नहीं करता। यह युगादि का नियम चला आ रहा है। मैंने पंच महाव्रत धारण किये हैं। मैंने षड्जीवनिकाय के प्राणियों की सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा से जीवन-पर्यन्त विरत रहने का व्रत ग्रहण किया है । जब सूर्य का रथ अपने व्रत (नियम) की रक्षा के लिये अस्त होना अंगीकार कर लेता है किन्तु पृथ्वी का स्पर्श नहीं करता तो फिर मैं पंचमहाव्रतधारी होकर अपने प्राणों के रहते इन अग्निकाय के जीवों की विराधना-हिंसा क्यों करू?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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