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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल । ४३६
अपने वृद्ध राज पुरोहित के इस कथन को सुनकर कुमारपाल को सन्तोष हुआ और उसने अपनी कटार म्यान में रख ली।
___ इस छोटी सी घटना से कुमारपाल के दो आदर्श एवं अनुकरणीय गुणों के साथ-साथ यह स्पष्टतः प्रकट हो जाता है कि वह वस्तुतः पापभीरु, परम आस्तिक और अपने दोषों के लिये प्रायश्चित करने में तत्पर था।
दृढ़ प्रतिज्ञ कुमारपाल
"कुमारपालकारितामारि-प्रबन्ध" (मुनि जिन विजय द्वारा सम्पादित पुरातन प्रबन्ध संग्रह) के अनुसार महाराज कुमारपाल के परम श्रद्धानिष्ठ अहिंसा भक्त बनने और अपने विशाल साम्राज्य में अमारि की घोषणा से कतिपय वर्गों के लोगों को बड़ी ईर्ष्या हुई और उन्होंने सामूहिक रूप से राजा के समक्ष उपस्थित हो निवेदन किया-"कन्टेश्वरी देवी को चिरकाल से बलि दी जाती रही है। अमारि की घोषणा के पश्चात् कन्टेश्वरी देवी को दी जाने वाली बलि भी बन्द कर दी गई है । अब यदि कन्टेश्वरी देवी को पशुओं की बलि नहीं दी गई तो कन्टेश्वरी देवी क्रुद्ध हो जायगी। उसके प्रकोप से गुर्जर राज्य और उसकी प्रजा का महान् अनर्थ हो सकता है। महाराज ! इसी कारण प्रजा में चारों ओर घोर अनर्थ की आशंका का भय व्याप्त हो गया है।"
अहिंसा का पुजारी कुमारपाल अपने निर्णय पर अटल था। तथापि उसने आचार्यश्री हेमचन्द्र की सेवा में उपस्थित हो उन्हें कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा उत्पन्न की गई परिस्थिति से अवगत किया।
उन्होंने कुमारपाल से कहा-“राजन् ! इस प्रकार से भयभीत वर्ग को आश्वस्त करने के लिये अच्छे मोटे ताजे पशुओं को देवी के मन्दिर के परकोटे में स्वयं अपने सामने बन्द करवा दो।"
कुमारपाल तत्काल आचार्यश्री के मनोगत विचारों को ताड़ गया और उसने प्रजा वर्ग को सान्त्वना देते हुए कहा-“सबके धार्मिक अधिकारों की रक्षा की जायगी और यथेष्ट व्यवस्था कर दी जायगी।"
- महाराज कुमारपाल ने अपने अधिकारियों को देवी की बलि के लिये मोटे ताजे पशु देवी के मन्दिर में पहुंचाने का आदेश दिया और उन्हें अपने समक्ष देवी के मन्दिर के अहाते में पानी व चारे की व्यवस्था कर बन्द करवा दिया। परकोटे के द्वार पर ताला लगाकर कुमारपाल ने चाबी अपने पास रक्खी। और द्वार पर निगरानी के लिये अपने सैनिकों को नियुक्त कर दिया।
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