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________________ ४३८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्रथम तो विशाल गुर्जर राज्य का अभिभावक और तत्पश्चात् प्रतापी राजा हुआ ।' लवणप्रसाद ने अपनी राजधानी अनहिल्ल पट्टण अथवा व्याघ्रपल्ली में न रख कर धोलका में रखी। पापभीरु एवं सच्चा आत्मनिरीक्षक कुमारपाल एक दिन कुमारपाल ने अपने राजप्रासाद में अपने पास बैठे हुए अपने प्रमुख परामर्शदाता आलिग नामक वयोवृद्ध पुरोहित से प्रश्न किया— “पुरोहितजी महाराज ! गुणों की दृष्टि से मैं महाराज सिद्धराज जयसिंह से कम हूं, अथवा समान वा अधिक ? यह बताने की कृपा कीजिये।" - राज पुरोहित आलिग ने एक क्षण सोचकर कहा- "राजराजेश्वर ! आपने पूछा है तो मैं आपके समक्ष यथातथ्य रूप से तथ्य बात ही निवेदन करूंगा। अपराध क्षमा हो । महाराज सिद्धराज जयसिंह में ६६ गुण और २ दोष थे, इसके विपरीत आप में २ गुण और ६६ दोष हैं।" राज पुरोहित आलिग गुर्जर राज्य में उस समय सत्यवादी के रूप में विख्यात थे। कुमारपाल भी इस बात को जानता था कि आलिग किसी के समक्ष सच बात कहने में कभी हिचकिचाहट अनुभव नहीं करता। पुरोहित के मुख से अपने ६६ दुर्गुणों की बात सुनकर कुमारपाल को अपने आप से बड़ी घृणा हुई । उसने अपनी कटार को म्यान से बाहर निकाल कर अपने दोनों नेत्र फोड़ने का उपक्रम किया । वृद्ध राजपुरोहित ने विद्युत् वेग से लपक कर महाराज कुमारपाल का दक्षिण हाथ अपने वृद्ध किन्तु सशक्त पंजे से कसकर पकड़ लिया और कहने लगा--"महाराज ! मापने मेरी आगे की बात नहीं सुनी। सिद्धराज जयसिंह में ६६ गुण थे लेकिन रणांगण में उद्भट पौरुष का प्रभाव और स्त्री लम्पटता ये दो महान् दोष उन १६ मुणों पर पानी फेर देने वाले थे; इसके विपरीत आप में कृपणता आदि ६६ दोष हैं किन्तु आपके रण शौण्डीर्य और 'मातृवत् पर दारेषु'--अपनी स्त्री के अतिरिक्त संसार की समस्त रमणियों को अपनी माता और सहोदरा के तुल्य समझने के जो महान् गुण हैं, उन दो गुणों से आपके वे ६६ दोष पूरी तरह ढंक जाते हैं।" . १. श्रीमद्भीमधेव राज्य चिन्ताकारी व्याघ्रपल्ली सङ्कत प्रसिद्धः श्रीमदानाक नन्दनः श्री लवरणसाहप्रसादश्चिरं राज्यं चकार । .. (प्रबन्ध चिन्तामणि पृष्ठ १६०, १९८८ का नवीन संस्करण) 2. Arnorajas' son Lavanprasad then took charge of the administration on behalf of the chalakye king. He fixed his headquarters at Dholka. -Struggle for Empire Vol. 5 Page 50. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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