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________________ ४० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ दूसरे दिन प्रातःकाल कुमारपाल अपने अधिकारियों और प्रमुख प्रजाजनों के साथ कन्टेश्वरी के मन्दिर में पहुंचा। देवी के मन्दिर के द्वार राजा ने अपने समक्ष खुलवाये । सब लोगों ने देखा कि रात में बन्द किये गये सभी पशु निर्भय हो मन्दिर के बाहर प्रांगण में बैठे हैं । महाराजा कुमारपाल ने उपस्थित प्रजाजनों को सम्बोधित करते हुए गम्भीर स्वर में कहा :- "देवी की बलि के लिये कल सायंकाल इन पशुओं को यहां बन्द कर दिया गया था । ये सब पूर्ण प्रसन्न मुद्रा में यहां बैठे हुए हैं। यदि देवी को पशुओं का मांस प्रिय होता तो यह महाशक्तिशालिनी देवी कंटेश्वरी इन पशुओं का भक्षण किये बिना नहीं रहती। जितने पशु यहां बन्द किये गये थे उनमें से एक भी कम नहीं हुआ है। इससे यही सिद्ध होता है कि देवी कंटेश्वरी को मांस किंचित्मात्र भी रुचिकर नहीं लगता है। उसे पशुओं के मांस की कोई लालसा नहीं है। मांस भक्षण तो वस्तुतः केवल जिह्वालोलुप रसगृद्ध लोगों को ही रुचिकर लगता है । देव देवियों को नहीं। इसलिये मेरे द्वारा की गई अमारि की घोषणा अटल है, अनुल्लंघ्य है और है पूर्णतः उचित । इसका पूर्णतः पालन किया जाय और देवी को अतीव स्वादिष्ट महाय॑ षट्रस भोजन-अन्न निर्मित नैवेद्य समर्पित किया जाय।" . इस प्रकार दृढ़ प्रतिज्ञ महाराजा कुमारपाल ने अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते हुए प्रजावर्ग को भी अपने बुद्धिकौशल से सन्तुष्ट कर दिया। इस प्रकार परमाहत महाराजा कुमारपाल ने अपने लगभग तीस वर्ष के शासनकाल में जिनशासन की जो अत्यन्त महत्वपूर्ण सेवाएं कीं, वे जैन इतिहास में ही नहीं अपितु भारत के गौरवशाली इतिहास में भी और विशेषतः गुजरात प्रदेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखी जाकर शताब्दियों तक स्मरण की ' जाती रहेंगी। भारत के इतिहास में सम्प्रति के पश्चात् यद्यपि वीर विक्रमादित्य, गंग राजवंश के प्रायः सभी राजा महाराजा, होइसल राजवंश और राष्ट्रकूट राजवंश के राजाओं ने अपने-अपने समय में जिनशासन की उल्लेखनीय सेवाएं कर जिनशासन के सर्वतोमुखी अभ्युदय एवं उत्कर्ष के लिये उल्लेखनीय प्रयास किये, किन्तु जहां तक अपने सम्पूर्ण राज्य में निरन्तर चौदह वर्ष तक अमारि की घोषणा का पूर्णतः प्रभावपूर्ण ढंग से पालन करवाकर जैनधर्म के आधारभूत अहिंसा सिद्धान्त का मन वचन और कर्म से न केवल लाखों करोड़ों ही अपितु अगणित मूक पशुओं को अभयदान प्रदान किया। इस दृष्टि से तो महाराज कुमारपाल का नाम, श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् हुए जिनशासनभक्त राजाओं में सम्प्रति के समकक्ष ही स्मरण किया जाता रहेगा। कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने विपुल साहित्य का निर्माण कर जो जिनशासन के ज्ञान भण्डार की उउल्लेखनीय वृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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