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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ ३. आचार्य जिनचन्द्र रामगिरि पर्वत पर रहते थे। ४. श्रमण भगवान् महावीर के धर्म संघ के एक अंग दिगम्बर सम्प्रदाय
में ब्राह्मणों ही के समान श्रावकों के लिये त्रिकाल सन्ध्या, (गायत्री कर्म अंगन्यासादि कर्म), कलशाभिषेक, प्रतिष्ठा, पूजा, दान और यात्रा ये छ कर्म और सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र के प्रतीक रूपी तीन वलय के सूत्र की यज्ञोपवीत धारण करने की अनिवार्य रूपेण परमावश्यक प्रथा प्राचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा प्रचलित
की गई। प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द आचार्य श्री जिनचन्द्र के शिष्य थे इस बात की पुष्टि इंडियन एन्टीक्यूरी के आधार पर विद्वानों द्वारा निर्णीत की गई नन्दी संघ की पट्टावली से भी होती है । उक्त पट्टावली में चौथे प्राचार्य का नाम जिनचन्द्र और पांचवें प्राचार्य का नाम कुन्दकुन्दाचार्य उल्लिखित है।'
इस लघु पुस्तिका में प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में एक सुनिश्चित सम्वत् का उल्लेख किया गया है कि वे विक्रम सम्वत् ७७० में (तद्नुसार ईस्वी सन् ७१३ एवं वीर निर्वाण सम्वत् १२४०) में हुए । इस प्रकार का निश्चित सम्वत् का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में जैन वांग्मय में, श्वेताम्बर अथवा दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों आदि में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता।
इसी प्रकार जैन श्रावक के लिये तीन सूत्र की यज्ञोपवीत धारण करना, त्रिकाल सन्ध्या, गायत्री कर्म, अंगन्यासादि कर्म, प्रतिष्ठा, कलषाभिषेक, आदि जिनका कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के प्रागमों अथवा आगमिक ग्रन्थों में कहीं भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, उन सब कर्मकांडों का ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, उन सब ब्राह्मरिणक कर्मकांडों का प्रचलन प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द ने ही दिगम्बर परम्परा में प्रारम्भ किया, इस बात का उल्लेख भी स्पष्ट रूप से इस लघु पुस्तिका में है। इस दृष्टि से भी इस प्रतिष्ठा पाठ नामक हस्तलिखित पुस्तिका का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर पौराणिक ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख है कि अहर्निश धर्माराधन में निरत रहने वाले माहणवर्ग की पहिचान के लिये भरत चक्रवर्ती ने रत्न विशेष से यज्ञोपवीत की भांति की तीन रेखाएं प्रत्येक माहरण के दक्षिण स्कन्ध से वाम वक्षस्थल और वाम पृष्ठभाग तक अंकित कर दी थीं। यज्ञोपवीत जैसा यह चिह्न भरत चक्रवर्ती ने इस उद्देश्य से किया था कि जो माहरण वस्तुतः धर्माराधन में, अध्ययन अध्यापन में ही निरत रहते थे और भरत चक्रवर्ती १. (क) जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृष्ठ १३६ व १३७
(ख) नन्दिसंघ की पट्टावली, जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २ पृष्ठ ७५४
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