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________________ ४२८ 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ चाहिये ।" इस प्रकार की राजाज्ञा के प्रसारित होते ही कतिपय उन गच्छों के आचार्य अपने श्रमण श्रमणी समूह के साथ पाटण से विहार कर अन्यत्र चले गये जो कि पंचमी के दिन पर्वाधिराज के आराधन के पक्षधर थे, किन्तु विधि पक्ष अर्थात् अंचल गच्छ के महान् प्रभावक प्राचार्य जयसिंहसूरि, जो उस समय पाटन में ही विद्यमान थे, उन्होंने पाटन में ही रहकर पंचमी के दिन ही पर्वाराधन करने के उद्देश्य से बड़ी ही सूझ-बूझ से काम लिया। उन्होंने अपने एक अतीव वाक्पटु श्रमणोपासक को चालुक्यराज कुमारपाल के पास भेज कर अपना यह सन्देश पहुंचाया : "राज राजेश्वर ! हमारे गुरु विधिपक्ष के आचार्यश्री जयसिंहसूरि पंचमी के दिन ही सांवत्सरी-पर्व का अाराधन करने वाले हैं। कुछ दिन पूर्व उन्हें इस प्रकार की आज्ञा के प्रसारित किये जाने का विश्वास नहीं था कि पंचमी को पर्वाराधन करने वाले पाटन छोड़ कर अन्यत्र चले जायं। इसी कारण उन्होंने कतिपय दिन पूर्व नमस्कार मन्त्र का अनुष्ठान प्रारम्भ कर व्याख्यान में नमस्कार मन्त्र पर विवेचन-विवरण प्रारम्भ कर दिया है। हमारे प्राचार्यश्री ने आप से पुछवाया है कि वे महामन्त्र नमस्कार मन्त्र के अनुष्ठान को बीच में अधूरा छोड़कर ही पाटन से बाहर चले जायं अथवा उस अनुष्ठान को पूर्ण करने के पश्चात् पाटन से बाहर जावें। पर्वाधिराज आने ही वाले हैं । पर्वाराधन तो गुरुदेव पंचमी को ही करेंगे और नमस्कार मंत्र का अनुष्ठान अभी लम्बी अवधि तक चलेगा। हमारे आचार्य देव ने पुछवाया है कि इस सम्बन्ध में आपका क्या आदेश है ?" अंचलगच्छ के प्राचार्य जयसिंह सूरि के सन्देश को सुनते ही महाराज कुमारपाल एक बार तो बड़े क्रुद्ध हुए किन्तु उसी क्षण उन्होंने यह अनुभव किया कि एक ओर तो अनुल्लंघनीय राजाज्ञा की परिपालना का प्रश्न है और दूसरी ओर चौदहपूवों के सार महामन्त्र नमस्कार के अनुष्ठानपरक विवेचन-विवरण में भंग का धर्म-संकट । महाराज कुमारपाल तत्काल अपने आराध्य गुरुदेव हेमचन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके समक्ष अपनी दुविधा प्रस्तुत करते हुए उनसे इसके समाधान की प्रार्थना की। कुछ क्षण विचार कर हेमचन्द्रसूरि ने कहा :-"राजन् ! बड़े-बड़े दिग्गज दिगम्बरवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले ये विधि पक्ष के प्राचार्य जयसिंहसूरि बड़े जिनशासन प्रभावक, मन्त्र, तन्त्र, ज्योतिष आदि अनेक विद्याओं के पारंगत विद्वान् हैं। उनके कोप का भाजन बनना किसी के लिये भी श्रेयस्कर नहीं है।" कुमारपाल हेमचन्द्रसूरि के परामर्शानुसार तत्काल जयसिंह सूरि की सेवा में उपस्थित हुआ और वन्दन-नमन के अनन्तर उनसे निवेदन करने लगा"महात्मन् ! मेरी यह आन्तरिक इच्छा है कि जैनधर्म संघ में किसी प्रकार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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