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________________ ४२२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ दोनों पुत्र प्रापके संकल्प को निश्चित रूप से पूर्ण करेंगे। हम साक्षी हैं । आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें ।" अपने श्रात्मीयों के मुख से इस प्रकार का निश्चित आश्वासन पाकर उदयन के अंग-प्रत्यंग पुलकित हो उठे । उसने निश्चिन्त हो अन्तिम आराधना कराने लिए किसी श्रमण को बुलाने का अपने ग्रात्मीयजनों से आग्रह किया । किसी श्रमरण की खोज में उदयन के अनेक परिजन नगर और आसपास की पौषधशालाओं एवं उपायों की ओर दौड़े किन्तु उन्हें कहीं कोई श्रमरण दृष्टिगोचर नहीं हुआ । उदयन की अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए एक बंठ (रथ्या पुरुष) को साधु का वेष पहना कर उदयन के समक्ष उपस्थित किया गया । उदयन ने तत्काल उस मुनि वेषधर के चरणों में मस्तक रखते हुए उसके समक्ष शान्त चित्त हो बड़ी ही तन्मयता. के साथ आलोचना- प्रत्यालोचनापूर्वक दस प्रकार की आराधना की । आराधना करते ही उदयन ने समाधिपूर्वक परलोक की ओर प्रयाण किया । जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष के पार्श्व में उगे हुए कंटकाकीर्ण वृक्ष में भी चन्दन की सौरभ - सुहास आने लगती है ठीक उसी प्रकार उस महा आराधक उदयन के कुछ ही क्षणों के संसर्ग से उस साधारण रथ्या पुरुष (बंठ) के अन्तर्मन में इस प्रकार का उत्कट वैराग्य उत्पन्न हुआ कि उसने कठोर संयम का पालन कर अन्त समय में संथारा संलेखना करके समाधिपूर्वक पण्डित मरण प्राप्त किया । मन्त्रिवर उदयन के देहावसानानंतर उसके पुत्र वाग्भट्ट और आम्रभट्ट ने शत्रुञ्जय के काष्ठ प्रासाद और भृगुपुर के शकुनिका विहार का पूर्णत: अभिनव रूप से जीर्णोद्धार करवा कर अपने पिता की अन्तिम इच्छा को पूर्ण किया । महाराज कुमारपाल ने बोधिरत्न प्रदान करने वाले आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के प्रति अपनी कृतज्ञता को चिरस्थायी बनाने हेतु स्तम्भतीर्थ के सालिगवसहि प्रासाद का, जिसमें कि हेमचन्द्रसूरि ने श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी, विपुल धनराशि व्यय कर जीर्णोद्धार करवाया और वहां रत्नमय जिन बिम्ब की प्रतिष्ठापना की । अठारह देशों में प्रमारि घोषणा एवं १४४० विहारों का निर्माण करवाकर दिग्दिगन्तव्यापिनी विपुल कीर्ति अर्जित कर लेने के उपरान्त भी महाराजा कुमारपाल के अन्तर्मन और मस्तिष्क में यही उत्कट अभिलाषा उद्वेलित होती रही कि वह भी पृथ्वीमण्डल को प्रनृरण कर सम्वत्सर प्रवर्त्तक वीर विक्रमादित्य की भांति अक्षय कीर्त्ति उपार्जित करे । उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि स्वर्ण सिद्धि की प्राप्ति होने पर ही वह विक्रमादित्य की तरह पृथ्वी को अनृण करने का लोकोत्तर कार्य कर सकता है। उसने अपने परमाराध्य समर्थ गुरु आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि से इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त करने की अनेक बार प्रार्थनाएं कीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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