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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल
[ ४२३ कुमारपाल द्वारा अनवरत रूप से अनुरोध के परिणामस्वरूप हेमचन्द्रसूरि ने अपने गुरु देवचन्द्रसूरि की सेवा में महाराजा कुमारपाल एवं पत्तन संघ के माध्यम से विनय पत्रिका भिजवाकर प्रार्थना की कि संघ के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य के निष्पादन के लिये वे एक बार अणहिल्लपुर पट्टण पधारने की कृपा करें। श्री देवचन्द्रसूरि उन दिनों कठोर तपश्चरण कर रहे थे तथापि पत्रिका प्राप्त होने पर कुमारपाल और संघ की ओर के प्राग्रह को देखते हुए उन्होंने यही समझा कि संघ का कोई बहुत बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य होगा। अतः उन्होंने पत्तन की ओर विहार किया और विहार क्रम से कुछ ही दिनों में पत्तन पहुंचे और सीधे अपनी पौषधशाला में प्रविष्ट हुए । देवचन्द्रसूरि के आगमन का संवाद सुनते ही कुमारपाल देवचन्द्रसूरि की सेवा में पहुंचा । संघमुख्य सहित श्राविका-श्रावक वृन्द भी पौषधशाला की ओर उद्वेलित सागर की भांति उमड़ पड़ा। राजा आदि समस्त श्रावक वर्ग ने सामूहिक गुरु वन्दन के अनन्तर उनके उपदेशामृत का पान किया। व्याख्यान की समाप्ति पर आचार्यश्री देवचन्द्रसूरि ने महाराज कुमारपाल और अपने शिष्य हेमचन्द्रसूरि से पूछा कि संघ का क्या कार्य है। उपस्थित साधक एवं श्राद्धवृन्द को विसर्जित कर एकान्त स्थान में श्री हेमचन्द्रसूरि और चालुक्यराज कुमारपाल देवचन्द्रसूरि के चरणों पर अपने भाल रखकर उनसे निवेदन करने लगे :-"भगवन् ! जिनशासन की प्रभावना के लिए आप स्वर्ण सिद्धि का रहस्य बताने की कृपा कीजिये।" हेमचन्द्रसूरि ने अपने गुरु को अपने बाल्यकाल की बात का स्मरण कराते हुए निवेदन किया :-"भगवन् ! जब मैं अपने बाल्यकाल में विरक्तावस्था में आपकी • सेवा में था, उस समय आपके आदेश से एक कठियारी से एक वेलि मांग कर उसके रस में ताम्बे के टुकड़े को मैंने बार-बार भिगोकर बार-बार अग्नि में तपाया। तपाने से थोड़ी ही देर में वह ताम्रखण्ड विशुद्ध स्वर्ण खण्ड के रूप में परिवर्तित हो गया था। कृपा कर उस बल्लरी के नाम के साथ-साथ उसकी पहिचान भी बताने की कृपा करें।"
अपने शिष्य हेमचन्द्रसूरि की स्वर्णसिद्धि विषयक की गई प्रार्थना को सुनते ही शान्त-दान्त आचार्य देवचन्द्रसूरि बड़े प्रकुपित हुए और हेमचन्द्रसूरि को अपने से दूर एक ओर ढकेलते हुए बोले :-"तू इस सिद्धि के नितान्त अयोग्य है । पहले मैंने तुझे लड्डू के छोटे से कण के तुल्य विद्या प्रदान की थी, उसी से तुझे अजीर्ण हो गया। अब तुझ जैसे मन्दाग्नि वाले अयोग्य व्यक्ति को पूर्ण मोदक तुल्या विद्या कैसे दी जा सकती है ? तुझे यह विद्या किसी भी दशा में नहीं मिल सकती।" तदनन्तर महाराजा कुमारपाल की ओर उन्मुख होते हुए देवचन्द्रसूरि ने कहा :--"राजन् आपका ऐसा प्रबल भाग्य नहीं है कि स्वर्ण सिद्धि जैसी विद्या आपको सिद्ध हो जाय । आपने अठारह देशों में अमारि की घोषणा द्वारा और पृथ्वी को जिनमन्दिरों से मण्डित करवाकर विपुल पुण्य अर्जित करते हुए इहलोक एवं परलोक-उभय लोकों . को सुधार लिया है । अब इससे और अधिक आपको क्या चाहिए ?"
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