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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २.. ] महाराजा कुमारपाल [ ४१७ विवाह भी कर दिया। जिस समय मेरे पुत्र की आयु बीस वर्ष की हुई, उस समय मेरे पति का सहसा अवसान हो गया। हमारे छोटे से परिवार पर विपत्ति के बादल छा गये । मेरा पुत्र इस अनभ्र वज्रपात के आघात को नहीं सह सका और वह भी मुझ अबला को अवलम्बविहीन छोड़कर इस संसार से चल बसा । यह राज्य का नियम है कि पुत्रविहीन व्यक्ति की सब सम्पत्ति पर राज्य द्वारा अधिकार कर लिया जाता है। मेरा पति नहीं रहा तथा मेरा प्राणप्रिय पुत्र भी चला गया और अब मेरा विपुल धन भी राज्य द्वारा अधिकार में कर लिया जायगा। अतः मुझे इस संसार के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा। मेरे शोक के अश्रुषों से भीगा हुआ यह धन राज्यकोष में चला जायगा। इसी दुःख के कारण मैं रो रही हूं। मुझे अब अपने जीवन से किसी प्रकार का मोह नहीं है। तुम अपने रास्ते जाओ और मैं अपने संकल्प के अनुसार अपना कार्य करती हूं। यह कहते हुए वह महिला द्रुतवेग से उठी और उस वृक्ष पर लटकाये हुए फांसी के फन्दे को अपने गले में डालने का चिन्तापूर्वक उपक्रम करने लगी। कुमारपाल विद्युत् वेग से उस फन्दे की ओर बढ़ा और उसने अपनी तलवार के बार से उसे काट डाला । वह अबला अवाक् खड़ी उसके मुख की ओर देखती ही रह गई । कुमारपाल का हृदय द्रवित हो उठा। वह मन ही मन स्वयं को धिक्कारता हुआ सोचने लगा-पति-पुत्र विहीना निस्सहाया विधवा का जीवनाधार एकमात्र अर्थ ही तो होता है । इस प्रकार की अनाथ अबलाओं के प्राणों के एकमात्र सम्बल धन को लेने वाले 'राजा' शब्द को कलंकित करने वाले मेरे जैसे राजा को धिक्कार है । उसने सान्त्वनाभरे शब्दों से उस महिला को आश्वस्त करते हुए कहा :-"बहिन ! तुम सब प्रकार के शोक को त्याग कर अपने घर जाओ। अब तुम्हारे जीवन सर्वस्व धन पर कोई हाथ नहीं डालेगा।" उस महिला ने उपेक्षापूर्ण मुद्रा में कहा :- "बन्धु ! ऐसा प्रतीत होता है कि तुम पाटन के रहने वाले नहीं हो। किसी दूसरे देश से आये हुए पथिक हो। यहां के राज्य का जो नियम है, वह तुम्हें विदित नहीं है । मेरा धन तो अब राज-भण्डार में ही शोभा देगा। प्रांसुत्रों से भीगे इस धन के लिये राजकोष के अतिरिक्त अन्य कोई स्थान नहीं है। इस नियम को टालने वाला कोई नहीं है। बन्धु, तुम अपनी राह पकड़ो।" कुमारपाल ने पुनः उसे आश्वस्त करते हुए कहा :-"बहिन ! मैं ही वह कुमारपाल हूं। तुम आश्वस्त हो अपने घर को लौट जाओ। अब तुम्हारे धन को कोई छूएगा भी नहीं।" १८ देशों में अमारि की घोषणा कर करोड़ों अनगिनत मूक पशुओं को अभयदान देने वाले दयालु राजा कुमारपाल को अपने समक्ष खड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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