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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
"एक समय महाराज कुमारपाल अपने शयनकक्ष में निद्राधीन थे। मध्यरात्रि में उनके कर्णरन्ध्रों में किसी के करुण क्रन्दन की हृदय विदारक ध्वनि गूंज उठी । कुमारपाल चौंक कर उठा और उसने अनुभव किया कि दूर से किसी स्त्री के करुण क्रन्दन की ध्वनि आ रही है । तत्क्षण उसके मन में विचार पाया कि प्रजा के सुख-दुःख का वस्तुतः "राजा कालस्य कारणम्" इस नीति वाक्य के अनुसार ध्यान रखना राजा का परम कर्तव्य है, ऐसा कौन दुःखी प्राणी है जो अर्द्ध-रात्रि के समय इस प्रकार करुण क्रन्दन कर रहा है । वह तत्काल अपनी शय्या से उठा । एक साधारण जन जैसे वस्त्र पहने और चुपचाप दबे पांव उस ओर बढ़ गया जिस अोर से कि उस करुण क्रन्दन की ध्वनि आ रही थी। अर्द्ध-रात्रि की निस्तब्धता में उनींदे प्रहरियों की दृष्टि बचाता हुआ राजा नगर के बाहर निकला और क्रन्दन की ध्वनि को लक्ष्य कर आगे बढ़ता गया। तीव्र गति से पर्याप्त पथ पार करने के अनन्तर कुमारपाल ने निर्जन वन में देखा कि एक नारी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई करुण क्रन्दन कर रही है। उसके हाथों में स्वर्ण कंकण हैं किन्तु शोक और रुदन के कारण उसका मुख मलिन हो गया है। उसके समीप जाकर राजा ने सम्वेदना भरे नम्र स्वर में पूछा :-“बहिन ! तुम इस निर्जन वन में इस समय किस कारण करुण क्रन्दन कर रही हो? क्या किसी ने तुम्हारे साथ धोखा कर तुम्हें इस भयावह वन में एकाकिनी छोड़ दिया है अथवा क्या किसी ने तुम पर किसी प्रकार का अत्याचार किया है ? जो भी बात हो मुझे स्पष्ट कहो।"
उस स्त्री ने क्षण भर के लिये उसकी अोर दृष्टिपात किया और अपने प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाले उस भद्र पुरुष से कहा :-"बन्धु ! मैं थी तब तो सब कुछ थी, किन्तु आज मैं कुछ भी नहीं हूं। मैं अबला अपने जीवन से ऊब चुकी हूँ। मेरी व्यथाभरी कहानी सुनकर तुम क्या करोगे ?"
कुमारपाल ने फिर कहा :- "बहिन ! धूप और छाया की भांति सुख और दुःख प्राणिमात्र के पीछे लगे हुए हैं। अतः साहस से काम लो। हताश होने से कोई भी समस्या हल नहीं होती है और अधिक उलझती है । मुझे स्पष्ट शब्दों में बताओ कि तुम कौन हो और तुम्हें क्या दुःख है ? यथा शक्ति मैं तुम्हारे दुःख को दूर करने का प्रयास करूंगा।"
उस महिला ने कुमारपाल के दयामिश्रित सान्त्वनाभरे शब्दों को सुनकर कहना प्रारम्भ किया :--"भाई ! मेरा पति इस गुर्जरदेश का प्रमुख व्यापारी था। समुद्री मार्ग से अनेक देशों में व्यापार कर उसने विपुल धन संचय किया। हमारे एक पुत्र भी हुआ। उसे पढ़ा लिखाकर अपने पैतृक व्यवसाय में भी लगाया और एक कुलीना रूपसी कन्या के साथ उसका .
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