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________________ ४१२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ व्यक्ति यह सोचने लगे कि राजा को हेमचन्द्रसूरि से किस प्रकार रुष्ट किया जाय । एक दिन पृष्ठमांसभोजी मच्छर की भांति पीठ पर ही निन्दा करने वाले एक चाटुकार ने महाराजा कुमारपाल से कहा :-"महाराज! यह श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रसूरि केवल आपको प्रसन्न रखने के लिये ही आपके मन को भाने वाली बातें किया करते हैं । वस्तुतः इनकी सोमेश्वर के प्रति किंचित्मात्र भी श्रद्धा-भक्ति नहीं है । और न ये भगवान् शंकर को कभी नमस्कार ही करते हैं । आप उन्हें सोमेश्वर की यात्रा के लिये कहकर देख लीजिये। आपको तत्काल हमारी बात पर विश्वास हो जायगा।" चाटुकारों की बातों में आकर कुमारपाल ने दूसरे दिन प्राचार्यश्री से अपने साथ सोमेश्वर की यात्रा का प्रस्ताव रखते हुए उन्हें निवेदन किया-"प्राप भी तीर्थ यात्रा के लिये पधारिये।" प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि को वस्तुस्थिति पहचानने में क्षरण मात्र भी विलम्ब नहीं हुआ । उन्होंने कहा :-"राजन् ! भूखे को भोजन के लिये निमन्त्रण देते समय आग्रह की आवश्यकता नहीं रहती। तपस्वी तो तीर्थों के अधिकारी होते ही हैं । हम अवश्य चलेंगे।" कुमारपाल ने कहा :- "मैं आपके लिये सुखासन आदि की सम्पूर्ण सुखद व्यवस्था करवा दूं?" प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने कहा :-"नहीं राजन् ! इसकी कोई प्रावश्यकता नहीं। हम तो पदयात्रा करते हुए ही इस पुण्य का उपार्जन करेंगे।" सोमदेव की यात्रा पर निकले राजा ने सोमनाथ के मन्दिर में प्रवेश करते ही भगवान् शिव के लिंग को साष्टांग प्रणाम कर बार-बार उनके समक्ष मस्तक झुकाया । राजा कुमारपाल के मन में चाटुकार चुगलखोरों द्वारा यह बात अच्छी तरह से जमा दी गई थी कि ये श्वेताम्बर साधु जिनेन्द्र भगवान् के अतिरिक्त और किसी को नमस्कार नहीं करते। इस बात की परीक्षा के लिये उसने हेमचन्द्रसूरि से निवेदन किया :-"महात्मन् ! भगवान् सोमनाथ की पूजा के लिये यह विपुल सामग्री जो मेरे साथ आई है, उससे आप ही पूजा कीजिये।" "ऐसा ही होगा।" कहते हुए श्री हेमचन्द्राचार्य सोमेश्वर के लिंग के पास पहुंचे । नेत्रों को विस्फारित कर दसों दिशाओं में दृष्टि प्रसार करते हुए उन्होंने कहा-"अहो ! यहां तो इस मन्दिर में कैलाशपति महादेव साक्षात् विराजमान हैं। अतः जो पूजा सामग्री यहां प्रस्तुत की गई है, उससे दुगुनी कर दी जाय ।" श्री हेमचन्द्राचार्य ने अपनी अत्यन्त भावविभोर ऐसी मुद्रा में अपने ये आन्तरिक उद्गार अभिव्यक्त किये कि उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। तत्काल और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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