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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल अर्थात् जिस प्रकार जला हुआ बीज पुनः अंकुरित नहीं होता ठीक उसी प्रकार छोटे-बड़े किसी भी प्रकार के राज्य की बागडोर सम्भालने वाले ब्राह्मण कल्पान्तकाल तक कभी न तो फूलते हैं और न फलते ही हैं । इसी प्रकारं जिनेश्वर प्रभु ने भी राज्य को, राजपिंड को अनन्त-अनन्त काल तक भवाटवी में भटकाने वाला बताया है।" श्री हेमचन्द्रसूरि के अद्भुत त्याग और उत्कृष्ट अनासक्ति से ओतप्रोत वचन को सुनकर महाराज कुमारपाल के अन्तर्मन में उनके प्रति पूर्वापेक्षया शतगुणित श्रद्धा उत्पन्न हो गई । कतिपय दिनों तक मालव प्रदेश में रहने के अनन्तर कुमारपाल ने अपनी सेना के साथ अणहिल्लपुर पट्टण की ओर प्रस्थान किया और उसकी प्रार्थना पर आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने भी पट्टण की ओर विहार किया। कतिपय दिनों के प्रयाण और विहार क्रम के अनन्तर कुमारपाल अपनी सेना के साथ और प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि अपने शिष्य वृन्द के साथ अणहिल्लपुर पट्टण पहुंचे। अब तो कुमारपाल प्रति दिन आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के दर्शन एवं प्रवचनश्रवण का लाभ लेने लगा। उसने प्राचार्य श्री की प्रेरणा से कुछ काल के लिये मद्यमांस के सेवन नहीं करने का व्रत लिया। महाराज कुमारपाल के अन्तर्मन में हेमचन्द्रसूरि के प्रति श्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। और वह उन्हें ही अपना महर्षि, पिता, गुरु, और इष्टदेव मानने लगा। एक दिन कुमारपाल ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी आन्तरिक इच्छा व्यक्त करते हुए प्रश्न किया :-"महात्मन् ! क्या किसी उपाय से मेरी कीत्ति भी युग युगान्तरों तक स्थायी हो सकती है ?" "अभी महाराजा कुमारपाल के मन में अपने वंश परम्परागत धर्म कार्यों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा है।" यह विचार कर श्री हेमचन्द्रसूरि ने कहा-"हां राजन् ! इसके तो अनेक उपाय हैं। विक्रमादित्य के समय सम्पूर्ण पृथ्वी को ऋणमुक्त बनाकर जो सोमनाथ का मन्दिर बनाया गया था, कालान्तर में समुद्र की लोल तरंगों से अहर्निश उठते हुए जलकणों से सोमनाथ का वह काष्ठमय मन्दिर क्षीणप्राय हो चुका है, उसका उद्धार कर उसे एक चिरस्थायी मन्दिर का रूप प्रदान कर तुम विपुल कीत्ति अर्जित कर सकते हो।" प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि की इस बात को सुनकर उसने सोमेश्वर के मन्दिर का पुनरुद्धार प्रारम्भ करवाया। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के प्रति महाराजा कुमारपाल की उत्तरोत्तर प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती जा रही श्रद्धा भक्ति को देखकर कतिपय ईर्ष्यालु स्वभाव के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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