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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
एक दिन प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि चालुक्य चूड़ामणि महाराज कुमारपाल के कक्ष में आये । उस समय उनके शिष्य यशश्चन्द्रगणि ने उनके आसन पर कम्बल रखने से पूर्व उसे अपने रजोहरण से परिमार्जित किया। जीवदया सम्बन्धी गहन तत्त्व से अनभिज्ञ कुमारपाल ने प्राचार्यश्री की ओर देखते हुए पूछा-"भगवन् ! यह क्या है ? यदि यहां पर किसी प्रकार का कोई जीव जन्तु, कीटाणु दृष्टिगत होता तो उस दशा में तो आप जैसे जगत् के प्राणिमात्र के बन्धु महात्माओं द्वारा पट्ट का परिमार्जित किया जाना परमावश्यक था, किन्तु इस समय तो किसी प्रकार का कोई जीव-जन्तु दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, उस दशा में श्रद्धेय श्रमणवर का परिमार्जनप्रयास क्या निरर्थक प्रयत्न की कोटि में नहीं पाता?"
"जब कोई जीव जन्तु दृष्टिगोचर हो तभी इस प्रकार का प्रयास किया जाना चाहिये, अन्यथा इस प्रकार का प्रयास वृथा ही सिद्ध होगा।" इस प्रकार की युक्तिपूर्ण राजा कुमारपाल की बात को सुनकर हेमचन्द्रसूरि ने अपने ईषत् हास्य से वातावरण में मधु सा घोलते हुए कहा-“राजन् ! एक चतुर राजा उसके शक्तिशाली शत्रु के आक्रमण करने पर ही क्या हाथी, घोड़े, रथ आदि की चतुरंगिणी सेना का गठन करता है, अथवा उससे पूर्व ही ? इसका सीधा सा उत्तर है-उससे पूर्व हो। तो जिस प्रकार यह राजनीति है कि किसी राज्य के अधीश्वर को अपनी चतुरंगिरणी सेना को सुगठित, सुसज्जित और किसी भी शत्रु के आक्रमण को निरस्त करने योग्य सदा सुसज्जित रखना चाहिये, ठीक उसी प्रकार राज्य व्यवहार ही की भांति हमारा धर्म व्यवहार भी है कि छोटे से छोटे अदृश्य जोव तक की रक्षा के लिए हम लोग परिमार्जन आदि सभी प्रकार की क्रियाएं करने में, प्राणियों की यतना करने में सदा तत्पर रहें।"
। प्राचार्यश्री की अद्भुत प्रत्युत्पन्नमति के द्योतक इस युक्ति संगत उत्तर से कुमारपाल इतना प्रसन्न हुआ कि वह उसी समय सांजलि शीश झुकाते हुए प्रार्थना करने लगा-"प्राचार्य देव ! राज्यारोहण से पूर्व आपके समक्ष की गई अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए मैं यह विशाल गुर्जर राज्य प्रापको सादर समर्पित करता हूं। कृपा कर आप इसे ग्रहण कीजिये।'
इस प्रकार कुमारपाल द्वारा पूर्व में की गई राज-प्रदान की बात को पुन: सुनकर हेमचन्द्राचार्य ने कहा-“राजन् ! मैंने उसी समय कहा था कि सर्वस्व त्यागी हमारे जैसे अध्यात्म पथ के पथिकों को राज्य की बात तो दूर, धर्मोपकरण के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के परिग्रह से कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रकार का परिग्रह और विशेषतः राज्य तो अन्ततोगत्वा नरक में ही ढकेलने वाला है। पुराणों में भी राज्य को घोर दुखदायी ही बताया है । यथा
राजप्रतिग्रहदग्धानां, ब्राह्मणानां युधिष्ठिरः । दग्धानां इव बीजानां, पुनर्जन्म न विद्यते ।।
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